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तारसप्तक के कवियों को याद करने की ट्रिक
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अज्ञेय के संपादकत्व में चार सप्तक प्रकाशित हुए, जो निम्न हैं :- तारसप्तक(1943) के कवि : (अमुने गिरा प्रभा) सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय, भारतभूषण अग्रवाल, मुक्तिबोध, प्रभाकर माचवे, गिरिजाकुमार माथुर, नेमिचंद्र जैन, रामविलास शर्मा। दूसरे तारसप्तक(1951) के कवि : ( भवानी शकुंतला हरिशमनरेश रघु धर्मवीर हैं।) भवानीप्रसाद मिश्र, शंकुत माथुर, नरेश मेहत्ता, रघुवीर सहाय, शमशेर बहादुर सिंह, हरिनारायण व्यास, धर्मवीर भारती। तीसरे तारसप्तक(1959) के कवि : (Pn Kn कीर्ति K मद विजय सर्वे हुआ।) प्रयागनारायण त्रिपाठी, कीर्ति चौधरी, मदन वात्स्यायन, केदारनाथ सिंह, कुंवर नारायण, विजयदेव नारायण साही, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना। चौथे तारसप्तक(1979) के कवि : अवधेश कुमार, राजकुमार कुंभज ,स्वदेश भारती, नंद किशोर आचार्य, सुमन राजे, श्रीराम शर्मा, राजेन्द्र किशोर।
गाँवों में घर करता शहर : एक दृष्टि
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आधुनिक जीवन प्रणाली की देन ही इसे कह सकते हैं कि बचपन में ही सपनों का बोझ लादे शिक्षा के लिए जननी तथा जन्मभूमि से विलग होना पड़ता है। क्योंकि शहरी शिक्षा इस स्वप्न पूर्ति में अधिक कारगर साबित हो रही है। सोचने समझने की पर्याप्त दृष्टि विकसित होने के बाद का संभवतः यह पहला अवसर है जो इतने समय तक गांव में रुकने को मिला। वरना एक ऐसी भीड़ का हिस्सा बनकर ही शहर में जीना पड़ता है जहां कितना भी दौड़ लो, लेकिन पाओगें खुद को पीछे ही। खैर विगत कुछ महीनों से गाँव में रहते हुए उन दृश्यों की ओर दृष्टि आकृष्ट हुई , जो किसी भी भूभाग को गाँव की संज्ञा प्रदान करते हैं। आज शहरीकरण का प्रकोप इतनी तेजी से बढ़ रहा है कि भारतीय गांवों का अस्तित्व खतरे में नजर आता है। स्थितियां इतनी भयावह होती जा रही हैं कि गांवों में भी गांव खोजने की नौबत आ गयी है। वाह्य संरचना और आपसी सौहार्द दोनों ही स्तरों पर। बढ़ते संसाधनों के चलते लोगो की स्वनिर्भरता आज लोगों को अपने तक सीमित कर रही है। नई पद्धतियों के चलते आज परंपरागत कृषि साधनों का विलोप होता जा रहा है, जो किसी भी गांव के जीवंत रूप के लिए आवश्यक होते हैं। ब...
प्रमुख काव्यशास्त्रीय ग्रंथ
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काव्यशास्त्रीय ग्रंथ और रचनाकार नाट्यशास्त्र- भरतमुनि काव्यालंकार- भामह काव्यादर्श- दण्डी काव्यालंकार सार संग्रह-उद्भट साहित्य मीमांसा- रुय्यक काव्यालंकारसूत्र -वामन काव्यालंकार-रूद्रट ध्वन्यालोक -आनन्दवर्धन काव्यमीमांसा-राजशेखर चंद्रालोक- जयदेव दशरूपक-धनञ्जय वक्रोक्तिजीवितम्-कुन्तक सरस्वतीकण्ठाभरण- भोजराज कविकण्ठाभरण- क्षेमेन्द्र काव्य प्रकाश-मम्मट साहित्यदर्पण - विश्वनाथ कविराज कुवालायनन्द, चित्र मीमांसा- अप्पय दीक्षित रसगंगाधर- पण्डित जगन्नाथ ...
जरूरत : कविता
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जरूरत ------- कोई योग गुरू तो मैं हूँ नहीं जो सिर पर पैर रखकर बैठ सकूँ। न तो किसी प्रेमी की तरह पैर पर सिर रखकर सिसकियाँ भरूँ। इन क्रियाओं से इतर भी कुछ क्रियाएं हैं, जिन्हें भी कर सकता हूँ। सुबह सुबह छत पर शीशा लेकर टहलना मेरा शौक नहीं, समय की जरूरत भी है क्योंकि जैसे ही निकलती हैं, सूरज की किरणें करता हूँ परावर्तित, उस दिशा की ओर जहाँ अब भी कायम है किसी के जीवन में अंधेरा।। ( निर्झर टाइम्स :साप्ताहिक पत्र , औरैया में प्रकाशित : 13-19अप्रैल 2020) © योगेश मिश्र कोरांव प्रयागराज उ.प्र. संपर्क : 6394667552
तुलसीदास की स्त्रीवादी दृष्टि : पुनर्विचार
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समय के साथ सब कुछ बदलता रहता है , बावजूद इसके महापुरुषों के वक्तव्य समय सापेक्ष अर्थ ग्रहण करने की ताकत रखते हैं। उनके विचारों में निहित यह शक्ति उन्हें स्मरण करने के लिए पर्याप्त है। हमारे महापुरुषों के वैचारिक चिंतन की गहनता का स्वाभाविक परिणाम यह है कि वे सर्वकालिक तथा सार्वभौमिक होते हैं। उनके विचार देशकाल की सीमाओं में बंधे हुए नहीं होते हैं , जबकि वे एक निश्चित भूभाग के निश्चित कालखंड में कहें या लिखे गए होते हैं। यह प्रवृत्ति जब किसी साहित्यकार में निहित होती है तो निश्चित ही उसकी कृति कालजई कृति बनती है। भारतीय साहित्य के महान व्यक्तित्वों को जब भी रेखांकित किया जाएगा , तो उनमें तुलसीदास का नाम अवश्य होगा। तुलसीदास मूलतः अवधी के कवि हैं , किन्तु उन्होंने अपने समय में प्रचलित काव्यभाषा ब्रज में भी रचना की है। तुलसीदास की अमर काव्यकृति रामचरितमानस है। यदि हम इस पर विचार करें तो सहज ही पाएंगे कि र...
हिंदी कविता का विकास और निराला की कविता
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हिंदी कविता का विकास और निराला की कविता योगेश कुमार मिश्र, एम.फिल. (जूनियर रिसर्च फेलो - विश्वविद्यालय अनुदान आयोग) रीतिकाल की काव्य परम्परा का विकास तब अवरुद्ध हुआ , जब पूरे देश में अंग्रेजों का शासन प्रभावी हुआ। देशी - रियासतों का उसमें विलय हो जाने से , अब उन रियासतों के सहारे जीने वाले कवि भी न रहे और जब उनका खाते न थे, तो उनकी गाते भी कैसे ? इस प्रकार ‘ जिसका खाना, उसका गाना ’ की अवधारणा बंद हुई , तो एक विराट चेतना संपन्न साहित्य का प्राकट्य हुआ। यह स्वाभाव...
छायावादी कथा-साहित्य
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छायावादी कथा-साहित्य (योगेश कुमार मिश्र, शोधार्थी , हिंदी एवं तुलनात्मक साहित्य विभाग महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा महाराष्ट्र 442001) खड़ी बोली हिंदी के विकास के चरमोत्कर्ष के रूप में छायावाद अपनी पहचान बनाता है, यद्यपि छायावादी साहित्य को स्थापित होने में समय लगा| उसके सभी साहित्यकारों को अपने साहित्य को स्थापित करने के लिए संघर्ष करना पड़ा| अपने सृजन का स्वयं स्पष्टीकरण देना पड़ा, किंतु आज छायावादी साहित्य की महत्ता को सभी स्वीकार चुके हैं| छायावादी साहित्य का खड़ीबोली के विकास में अहम योग है| उसने अनेक संभावनाओं को जन्म दिया, जो हिंदी साहित्य को ऊंचाइयों तक पहुंचाने में सफल रहे| यदि हम छायावादी साहित्य को केवल काव्य तक ही सीमित न समझे, तो अन्य विधाओं में भी छायावादी साहित्य अपनी पहचान को कायम करता है| छायावाद के सभी बड़े रचनाकारों ने कविता की साथ कहानी, उपन्यास, निबंध, रेखाचित्र, संस्मरण, नाटक इत्यादि अनेक विधाओं को अपने सृजन से समृद्ध किया| जयशंकर प्रसाद ने कविता के साथ-साथ नाटकों और कथा साहित्य में भी समान रूप से ख्याति अ...