हिंदी कविता का विकास और निराला की कविता
हिंदी कविता का विकास और निराला की कविता
योगेश कुमार मिश्र, एम.फिल.
(जूनियर रिसर्च फेलो - विश्वविद्यालय अनुदान आयोग)
रीतिकाल की काव्य परम्परा का विकास तब अवरुद्ध हुआ, जब पूरे देश में अंग्रेजों का शासन प्रभावी हुआ। देशी-रियासतों का उसमें विलय हो जाने से, अब उन रियासतों के सहारे जीने वाले कवि भी न रहे और जब उनका खाते न थे, तो उनकी गाते भी कैसे? इस प्रकार ‘जिसका खाना, उसका गाना’ की अवधारणा बंद हुई, तो एक विराट चेतना संपन्न साहित्य का प्राकट्य हुआ। यह स्वाभाविक था भी, क्योंकि अंग्रेजी सत्ता की क्रूरता से निपटना अकेले के बस की बात न थी। हिंदी कविता यहाँ अपनी लघुता त्यागकर नया मोड़ लेती है, केवल भाषा ही नहीं बदली है, विषय की सीमाओं में भी विस्तार हुआ। रीतिकालीन कवि जहाँ आश्रित राजा का बखान करने में अपनी कवित्व-शक्ति को जाया कर रहे थे, वहीं इन देशी राजाओं के सत्ताविहीन होने से साहित्य भी अपनी लघुता को त्यागता है। वह भी ‘साजी -चतुरंग सेन,अंग में उमंग धारी’ समस्त भारत को अपने दायरे में समेटने का प्रयास करता है। राष्ट्रीयता की भावना का विकास यहीं से प्रारम्भ होता है। भारतेंदु हरिश्चंद्र में भी राष्ट्रीयता दिखाई देती है, लेकिन मामला बहुत स्पष्ट हो नहीं पाया है, कारण यह, न तो अभी काव्य-भाषा के रूप में खड़ी बोली आ सकी है और न तो राजभक्ति की अवधारणा जा सकी है। इसके बाद जैसे-जैसे खड़ी बोली काव्य-भाषा के निकट आ रही है, वैसे-वैसे राजभक्ति की अवधारणा दूर होती जा रही है।
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने खड़ी बोली को काव्य-भाषा के रूप में स्थापित करने के लिए कोई कोर कसर न छोड़ी। अंततः सफल भी रहे। यहाँ ध्यान देने की जरूरत है कि- न केवल काव्य- भाषा में परिवर्तन हो रहा है, अपितु विषय में भी परिवर्तन के आग्रही थे- आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी। इसीलिए वे अपने ‘कवि-कर्तव्य’ नामक लेख में लिखते हैं कि- “चींटी से लेकर हाथी-पर्यंत पशु, भिक्षुक से लेकर राजा-पर्यंत मनुष्य, बिंदु से लेकर समुंद्र-पर्यंत जल, अनंत आकाश, अनंत पृथ्वी, अनंत पर्वत सभी पर कविताएँ हो सकती हैं।"1 इस वाक्य में एक प्रकार से उनकी खीझ भी प्रकट हुई है, क्योंकि ‘श्रीराधे’ की वर्षा ने साहित्य को जलमग्न कर दिया था। जलमग्न फसलों को नष्ट होने में देर नहीं लगती, इस बात को आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी बखूबी समझ रहे थे। रीतिकालीन कवि अपने आश्रयदाता राजा-रानियों की रति-क्रीड़ाओं का वर्णन भी ‘श्रीराधे’ के सहारे करने लगे थे। भिखारीदास के माध्यम से इसे स्पष्ट करें तो- ‘आगे के सुकवि रीझहै, तो कविताई/ न तो राधा कन्हाई ,सुमिरन कौ बहानौ है।’ यहां गौर करने लायक यह है कि- यदि वे कविताई में असफल हुए , तब ‘श्रीराधे’ का स्मरण है, अन्यथा वह कुछ और था। सूरदास ने जो छवि 'श्रीराधे' की दिखाई थी, उसे इन रीतिकालीन चाटुकारों ने गर्त में डुबो दिया, जो कवि ‘आँखिन मुंदिबे के मिस आनी, अचानक मीठी उरोज लगावै’ जैसे कृत्यों के चित्रण में रुचि रखता है तथा ‘केली के राति अधाने नहीं, दिन ही में लला पुनि घात लगाई’ को आधुनिक मीडिया की तरह वर्णन का विषय बनाता है, जैसे उसके पास कहने-सुनने को कुछ और बचा ही न हो, उनसे उच्च कोटि के साहित्य के अपेक्षा करना व्यर्थ है।
अतएव ‘श्रीराधे’ की छवि को छोड़ना आवश्यक हो गया था। बिना उसे छोड़े रीतिकालीन-प्रवृत्तियों से बाहर निकलना मुश्किल था। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के इस आवाहन – “यमुना के किनारे केलि-कौतुक का अद्भुत वर्णन बहुत हो चुका। न परकियाओं पर प्रबंध लिखने की अब कोई आवश्यकता है और न ही स्वकियाओं के गतागत की पहेली बुझाने की”2 पर हिंदी कविता एक नया मोड़ ग्रहण करती है। यह मोड़ हिंदी कविता को ‘राष्ट्रीयता’ के साथ जोड़ता है। अब ‘ईश-वंदना’ की जगह ‘मातृ-वंदना’ को प्रधानता दी जाने लगी। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी इस दृष्टि से चिर स्मरणीय रहेंगे कि उन्होंने ‘श्री-राधे’ की साहित्यिक बाढ़ एवं बज्रभाषा-काव्य से साहित्य को मुक्ति दिलाई। भक्तिकालीन भक्ति का श्रृंगार में कब विलय हुआ, इसके लिए किसी ने विशेष प्रयत्न किया समझना कठिन है, किंतु श्रृंगार से राष्ट्रीयता की अवधारणा के लिए मशक्कत करनी पड़ी है। आधुनिक काल का आरंभ राष्ट्रीयता की भावना के साथ ही माना जा सकता है। भारतेंदु-कालीन साहित्य से ही राष्ट्रीयता की अवधारणा विकसित होती है। इस संदर्भ में प्रो. रामस्वरूप चतुर्वेदी लिखते हैं कि- “कविता में खड़ी बोली का व्यापक आरंभ श्रीधर पाठक से दिखता है, राष्ट्रीयता की तीव्र अनुभूति भारतेंदु से ही उभरने लगती है, पर खड़ी बोली और राष्ट्रीयता का प्रभावी सहकार संभव होता है -पहली बार मैथिलीशरण गुप्त के यहाँ।”3
छायावादी कविता इन दोनों दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है कि उसने खड़ी बोली की उत्कृष्ट रचनाएँ दी तथा राष्ट्रीयता के स्वर को सशक्त किया। यद्यपि आरंभ में उनकी राष्ट्रीयता पर प्रश्न चिन्ह लगाया जाता रहा है, तथापि इन कवियों में देश-भक्ति की अवधारणा व्याप्त है। भक्तिकालीन ईश्वर, रीतिकालीन साहित्य में आश्रयदाताओं के द्वारा विस्थापित तो हुआ, किंतु नाम वही रहा। रीतिकालीन राजाओं को आधुनिक-साहित्य में ‘आम-मानव’ ने विस्थापित किया। साहित्य के केंद्र में राष्ट्रीयता ने अपना दबदबा कायम किया और आयी ‘प्रकृति’। ‘जुही की कली’ ने ‘अंग-अंग नग जगमगति, दीप शिखा सी दे देह’ वाली नायिका को पीछे कर दिया. अब ‘तोडती पत्थर’ वाली महिला के सौन्दर्य ने भी कवियों को आकर्षित किया। ‘भिक्षुक’ के सामने अब राजा न टिक सके और ‘बादलराग’ ने सत्ताधारियों और पूंजीपतियों को झकझोर दिया। यह बड़ा साहित्यिक मोड़ था। कुल मिलाकर साहित्यिक विषयों में नवीनता दिखाई पड़ने लगी। उपेक्षित वर्ग पर भी कविताएँ लिखी जाने लगी। घर के चारदीवारी में बंद महिलाओं ने भी कवियों की कलम पर अपना अधिकार जमाया।
निराला का काव्य एक ओर जहां रीतिकालीन-साहित्य से अपना साम्य स्थापित करता है, तो वहीं दूसरी और समकालीन कविता की दिशा तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। छायवादी कवि सुमित्रानंदन पंत जहाँ रीतीकालीन साहित्य एवं कवित्त छंद का विरोध करते हैं और आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के मत का उल्लेख तो पहले किया जा चुका है कि वह रीतिकालीन-साहित्य के विरोधी हैं। इस संदर्भ में डॉ बच्चन सिंह का मत है कि- “रीतिवाद का दोनों विरोध कर रहे थे, एक के हाथ में गुरु हथौड़ा था, तो दूसरे के हाथ में सुनार की हथौड़ी।”4 बावजूद इसके निराला का प्रिय छंद ‘कवित्त’है , जिसे वे हिंदी का जातीय छंद मानते हैं। उनकी पहली कविता ‘जुही की कली’ जो मुक्त छंद की भी पहली कविता है, में स्थितियाँ रीतिकालीन साहित्य जैसी हैं, बशर्ते चित्रण का माध्यम प्रकृति है। इसका भी नायक रीतिकालीन ही है। कुछ पंक्तियाँ :-
“निर्दय उस नायक ने
निपट निठुराई की
कि झोकों की झड़ियो से
सुंदर सुकुमार देह सारी झकझोर डाली।”5
इस कविता के संदर्भ में रामस्वरूप चतुर्वेदी का मत है कि- “निराला काव्य के संदर्भ में यह संयोग से कुछ अधिक है कि हिंदी में मुक्त छंद की पहली कविता ‘जुही की कली’ समूची श्रृंगार परिकल्पना में रीतिकालीन चित्रण से जुड़ी हुई है।”6 निराला की कुछ अन्य कविताएँ भी रीतिवाद से अपना साम्य स्थापित कर लेती है। जैसे- ‘संध्या सुंदरी’ की नायिका चंचलता से रहित है तथा नूपुरो की ‘रुन-झुन, रुन-झुन’ से भी आकर्षित नहीं करती, लेकिन जब ‘मदिरा की वह नदी बहाती आती’ है तो रसलीन की नायिका ‘अमिय हलाहल मद भरे, सेत स्याम रतनार’ की याद तो दिला ही देती है, लेकिन ऐसा नहीं कि निराला का काव्य यही तक सीमित है। वह अपनी पूर्ववर्ती काव्य परंपरा में आदिकाल से भी जुड़ता है। प्रोफेसर रामस्वरूप चतुर्वेदी का मत है कि- “जागो फिर एक बार(२) तथा ‘छत्रपति शिवाजी का पत्र’ जैसी लंबी कविताओं का वीर और पौरुष भाव रीतिकाल और भक्तिकाल के पहले की वीर काव्य परंपरा से जुड़ता है।”7 निराला की अनेक कविताएं ऐसी हैं जो भक्तिकालीन वातावरण को साकार करती हैं। निराला के प्रिय कवि तुलसीदास हैं, उनके जीवन पर आधारित ‘तुलसीदास’ नामक लंबी कविता का सृजन करते हैं। इस कविता में तत्कालीन सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक परिवेश जीवंत हो उठा है। इसके अतिरिक्त निराला रामकृष्ण मिशन की मासिक पत्रिका ‘समन्वय’ से जुड़े रहे हैं। अतएव उनकी कविताओं में दर्शन का प्रभाव आना स्वभाविक है। कुल मिलाकर यह कह सकते हैं कि निराला के काव्य में आदिकालीन साहित्य, भक्तिकालीन साहित्य तथा रीतिकालीन साहित्य, इन सभी की प्रवृत्तियां मौजूद हैं। एक बड़े कवि के साहित्य से इनकी अपेक्षा भी की जाती है कि वह पूर्वापर साहित्य से संबंध स्थापित करे।
निराला, न केवल छायावाद के बड़े कवि हैं, अपितु बीसवीं सदी के बड़े कवियों मे से एक हैं। छायावादोत्तर काव्य की दिशा और दशा को निराला का साहित्य किस प्रकार से प्रभावित करता है, इस पर भी दृष्टि डालना आवश्यक है। निराला जिस मुक्त-छंद के प्रणेता हैं, वह छंद समकालीन साहित्य में सर्वाधिक प्रयुक्त हो रहा है। इस छंद ने भावाभिव्यक्ति को सहज कर दिया, जिससे नए-नए प्रयोग इसमें किए गए। निराला के संदर्भ में नागार्जुन, जो कि स्वयं में एक विराट चेतना संपन्न कवि हैं, वे लिखते हैं- “मेरे मन में बार-बार यह बात उठती है कि निराला रवीन्द्र से भी ऊँचे उठ सकते थे। गद्य- पद्य की नाना विधाओं पर निराला का अद्भुत अधिकार था। श्रृंगार रस, वीर रस, करुण रस की उनकी रचनाएँ रवींद्र की रचनाओ से मिलाकर देखी जाएँगी, तो आलोचकों को शायद निराश होना पड़े।”8 नागार्जुन के इस कथन पर चिंतन की जरूरत है। ठाकुर रवीन्द्रनाथ निःसंदेह बड़े कवि हैं और उन्हें नोबेल पुरस्कार भी प्राप्त है, किंतु इसका मतलब यह नहीं कि उनके नाम के प्रभाव मात्र से ही किसी के साथ उसका तुलनात्मक अध्ययन ही न किया जाय। निराला के साहित्य की श्रेष्ठता की ओर संकेत करते हुए नागार्जुन ने लिखा है कि- “भविष्य में अनेकानेक कृतविद्य समीक्षक निराला को रवींद्र से भिड़ा कर देखेंगे और भूरि-भूरि चमकृत होंगे।”9 इस कथन के यहाँ उल्लेख का आशय बस इतना ही है कि यदि इस दृष्टि से विचार किया जाए तो निराला-साहित्य के कुछ नए आयामों तक पहुँचा जा सकता है। अपने उत्तरवर्ती काव्य को निराला किस रूप में योग देते हैं। इस पर विचार करते हुए डॉ. बच्चन सिंह लिखते हैं कि- “मुक्तिबोध की कविता में छिपे हुए लोग पहले निराला की कविता ‘महँगू महँगा रहा’ (1946) में छिपे थे।”10 उदाहरण में इन पंक्तियों को उद्धृत करते हैं-
“ हमारे अपने हैं यहाँ बहुत छुपे हुए लोग
मगर चुकी अभी टीला वाली है देश में”
उनका ही कथन है कि- “निराला का ‘परिमल’ शमशेर का ‘नास्टेलजिया’ बन गया है।”11 निराला की लंबी कविताओं- ‘सरोज-स्मृति’, ‘राम की शक्ति पूजा’ एवं ‘तुलसीदास’ की महत्ता को प्रायः सभी बड़े आलोचक स्वीकार चुके हैं। इन कविताओं में, न केवल निराला-साहित्य की, अपितु भारतीय साहित्य की श्रेष्ठता को भी प्रमाणित करने की सामर्थ्य है। यही कारण है कि इनकी बदौलत बिना महाकाव्य की रचना किए, निराला महाकवि हैं। साठोत्तरी हिंदी कविता में जब विमर्शो का दौर चला तो उसके कुछ समय बाद शोधकर्ताओं ने दलित-विमर्श के आदि स्रोत को खोजना प्रारंभ किया। इसके लिए वे भक्तिकाल तथा पौराणिक साहित्य तक पहुँच जाते हैं। कुछ एक ने तो कबीर को माना भी है, जैसे कि आजकल किसी ने हनुमान के दलित होने की खोज की है। डॉ बच्चन सिंह जो कि हिंदी के बड़े आलोचकों में से हैं। उनका मत है कि- “दलितों के बारे में जो नई अवधारणा बनी है, उसके अनुसार वास्तविक दलित-साहित्य पुरस्कर्ता प्रेमचंद और निराला ठहरते हैं।”12 यदि यह श्रेय प्रेमचंद को दे भी दिया जाय, तो भी निराला दलित-काव्य के प्रणेता होंगे, क्योंकि प्रेमचंद काव्य में दखल नहीं करते । इसके आगे बच्चन सिंह लिखते हैं कि- “ ‘तोड़ती पत्थर’ दलित साहित्य का एक श्रेष्ठ मॉडल है।”13 दलित-विमर्श की दृष्टि से निराला की कुछ अन्य कविताएँ भी देखी जा सकती हैं। उदाहरणार्थ-
“दलित जन पर करो करुणा
दीनता पर उतर आए प्रभु तुम्हारी शक्ति अरुणा।”14
इस संदर्भ में निराला की एक और भी कविताओं को देखा जा सकता है। जैसे-
जल्द जल्द पैर बढ़ाओ, आओ, आओ।
आज अमीरों की हवेली
किसानों की होगी पाठशाला,
धोबी, पासी, चमार, तेली
खोलेंगे अंधेरे का ताला,
एक साथ पढ़ेगे, टाट बिछाओ।”15
हालांकि इसी कविता के सहारे मार्क्सवादी भी निराला को अपने खेमे में खड़ा करते हैं। इतना ही नहीं ‘तुलसीदास’ कविता में अपने प्रिय कवि की ‘वर्णाश्रम निज-निज धरम/ निरत वेद पथ लोग’ की अवधारणा पर निराला गहरी चोट करते हैं। ‘संत कवि रविदास के प्रति’ नामक कविता में निराला के शब्द हैं- “चरण छूकर कर रहा मैं नमस्कार” ऐसे कई प्रमाण मिलेंगे जो उन्हें दलित-काव्य का पुरस्कर्ता सिद्ध करते हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि निराला का साहित्य अपने पूर्ववर्ती तथा उत्तरवर्ती दोनों ही साहित्यों से तादात्म्य स्थापित करता है। चाहे वह आदिकालीन रासो काव्य हो, या आधुनिक काल का विमर्श-युक्त साहित्य। निराला के काव्य में हिंदी काव्य की विकास परंपरा विद्यमान है, जो उन्हें कवि-शिरोमणि के समीप ले जाती है। पूरी काव्य-परंपरा को अपने में संजोए रखने के कारण ही उनका साहित्य विराट अवधारणा से युक्त है। “निराला केवल नाम और रूप नही अगम अरूप आत्मा भी हैं।” 16 आज के कवियों के लिए निराला प्रेरणा स्रोत भी हैं, और चुनौती भी।
संदर्भ सूची:-
1. समीक्षा की कसौती पर, प्रो. शेरसिंह विष्ट, वाणी प्रकाशन(2017)
2. समीक्षा की कसौती पर, प्रो. शेरसिंह विष्ट, वाणी प्रकाशन(2017)
3. प्रसाद-निराला-अज्ञेय, रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभरती प्रकाशन(2014)
4. निराला का काव्य: विविध संदर्भ, हिंदी परिषद् प्रकाशन-इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद(2001)
5. निराला रचनावली-1, (सं.) नन्द किशोर नवल, राजकमल प्रकाशन(2014)
6. प्रसाद-निराला-अज्ञेय, रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभरती प्रकाशन(2014)
7. प्रसाद-निराला-अज्ञेय, रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभरती प्रकाशन(2014)
8. निराला का काव्य: विविध संदर्भ, हिंदी परिषद् प्रकाशन-इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद(2001)
9. निराला का काव्य: विविध संदर्भ, हिंदी परिषद् प्रकाशन-इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद(2001)
10. निराला का काव्य: विविध संदर्भ, हिंदी परिषद् प्रकाशन-इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद(2001)
11. निराला का काव्य: विविध संदर्भ, हिंदी परिषद् प्रकाशन-इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद(2001)
12. निराला का काव्य: विविध संदर्भ, हिंदी परिषद् प्रकाशन-इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद(2001)
13. निराला का काव्य: विविध संदर्भ, हिंदी परिषद् प्रकाशन-इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद(2001)
14. निराला रचनावली-2, (सं.) नंदकिशोर नवल, राजकमल प्रकाशन(2014)
15. निराला रचनावली-2, (सं.) नंदकिशोर नवल, राजकमल प्रकाशन(2014)
16. अनकहा निराला, आचारी जानकीवल्लभ शास्त्री, अभिधा प्रकाशन, दिल्ली(2003)
#पता :- शोधार्थी, हिन्दी एवं तुलनात्मक साहित्य विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र
संपर्क : 6394667552
ईमेल : yogeshmishra154@gmail.com
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र
संपर्क : 6394667552
ईमेल : yogeshmishra154@gmail.com
Comments
Post a Comment