जरूरत : कविता

जरूरत

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कोई योग गुरू तो मैं हूँ नहीं
जो सिर पर पैर रखकर बैठ सकूँ।
न तो किसी प्रेमी की तरह
पैर पर सिर रखकर सिसकियाँ भरूँ।
इन क्रियाओं से इतर भी
कुछ क्रियाएं हैं, जिन्हें भी कर सकता हूँ।

सुबह सुबह
छत पर शीशा लेकर टहलना
मेरा शौक नहीं, समय की जरूरत भी है
क्योंकि
जैसे ही निकलती हैं,
सूरज की किरणें
करता हूँ परावर्तित, उस दिशा की ओर
जहाँ अब भी कायम है
किसी के जीवन में अंधेरा।।


(निर्झर टाइम्स :साप्ताहिक पत्र , औरैया में प्रकाशित  : 13-19अप्रैल 2020) 

© योगेश मिश्र
कोरांव प्रयागराज उ.प्र.

संपर्क : 6394667552 

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