गाँवों में घर करता शहर : एक दृष्टि

  •  आधुनिक जीवन प्रणाली की देन ही इसे कह सकते हैं कि बचपन में ही सपनों का बोझ लादे शिक्षा के लिए जननी तथा जन्मभूमि से विलग होना पड़ता है। क्योंकि शहरी शिक्षा इस स्वप्न पूर्ति में अधिक कारगर साबित हो रही है। सोचने समझने की पर्याप्त दृष्टि विकसित होने के बाद का संभवतः यह पहला अवसर है जो इतने समय तक गांव में रुकने को मिला। वरना एक ऐसी भीड़ का हिस्सा बनकर ही शहर में जीना पड़ता है जहां कितना भी दौड़ लो, लेकिन पाओगें खुद को पीछे ही। खैर विगत कुछ महीनों से गाँव में रहते हुए उन दृश्यों की ओर दृष्टि आकृष्ट हुई , जो किसी भी भूभाग को गाँव की संज्ञा प्रदान करते हैं। आज शहरीकरण का प्रकोप इतनी तेजी से बढ़ रहा है कि भारतीय गांवों का अस्तित्व खतरे में नजर आता है। स्थितियां इतनी भयावह होती जा रही हैं कि गांवों में भी गांव खोजने की नौबत आ गयी है। वाह्य संरचना और आपसी सौहार्द दोनों ही स्तरों पर। बढ़ते संसाधनों के चलते लोगो की स्वनिर्भरता आज लोगों को अपने तक सीमित कर रही है। नई पद्धतियों के चलते आज परंपरागत कृषि साधनों का विलोप होता जा रहा है, जो किसी भी गांव के जीवंत रूप के लिए आवश्यक होते हैं। बैलों से कृषि करने वालों किसानों का पशुओं के प्रति मित्रवत व्यवहार देखने योग्य होता है। ये पशु उनके लिए किसी भी पारिवारिक सदस्य से कम नही होते हैं। साहित्यकार महादेवी वर्मा के गिल्लू, सोना, रोजी का प्रेम देखना है, तो देहात के इन किसानों के पास आना होगा।


  • इतना ही नहीं वर्तमान में कोरोना जैसी वैश्विक महामारी के समय में सर्वाधिक सुरक्षित जगह ये गाँव ही हैं, जहाँ लोग न तो मानसिक रूप से कोरोना के खौफ़ से डरे हुए हैं और न ही शारिरिक रूप से ही कोई ग्रसित है। ऐसे जगहों के मिटते अस्तित्व को लेकर चिंतित होना स्वाभाविक है। लेकिन केवल चिंता करने से ही काम नहीं चलने वाला है। भारतीय गांवों में लगातार घर करता शहर चिता का विषय है। यदि ये भारतीय गाँव इसी गति से अस्तित्व विहीन होते रहे तो बहुत संभव है कि आने वाले दशकों में गांवों में भी गांव खोजने की नौबत आएगी।
  • भारतीय गामीणों को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। उनके परंपरागत व्यवसायों तथा उनकर साधनों का नवीनीकरण होना चाहिए। तभी उनका रुझान इन कार्यों में होगा और उनकी अगली पीढ़ी इसे सहजता से स्वीकार करेगी। अन्यथा बहुत संभव है कि वे पलायन करने के लिए विवश होंगे।

  • आज शहरीकरण का दायरा इतना तेजी से बढ़ रहा है कि शहरों के उबाऊ जीवन से जब लोग गांव की ओर आकृष्ट होते है, तो पता चलता है कि गांव पहुँचकर भी उन्हें शहर ही मिलता है गांव नहीं। गांवो में भी लोगों की व्यस्तताएँ इस कदर बढ़ती जा रही हैं कि उनके पास किसी से मिलने या सामूहिक गतिविधियों के आयोजन का समय नहीं है, हालांकि इसका कारण लोगों की मनःस्थितियां भी है। आज गांव के लोगों में भी सौहार्दपूर्ण संबंधों की कमी होती जा रही है। इसका कारण औद्योगिक सभ्यता है, जहाँ कितना भी इकट्ठा कर लो वह कम ही नजर आता है। लोगों में अतृप्ति का भाव इतना बढ़ गया है कि वे दिन-रात केवल अधिकाधिक संग्रह में लगे रहते हैं। ऐनकेन प्रकारेण वे सही या गलत माध्यमों की परवाह किए बिना भौतिक संसाधनों को जुटाने में लगें रहते हैं। इन बातों को देखकर दृष्टि चार्ल्स मेटकाफ के उस कथन पर जाती है जो भारतीय गांवो के संदर्भ में है - "गाँव छोटे छोटे गणतंत्र थे। उनकी अपनी आवश्यकताएं गाँव में ही पूरी हो जाती थीं। बाहरी दुनिया से उनका कोई संबंध नहीं था। एक के बाद दूसरा राजवंश आया, एक के बाद दूसरा उलटफेर हुआ; हिंदू, पठान, मुगल, सिक्ख, मराठों के राज्य बनें और बिगड़े, पर गाँव वैसे के वैसे ही बने रहे।" 

  • भारतीय गांवो का वह रूप आज कहाँ गया, जहाँ सब एक दूसरे के साथ हिलमिल कर रहते थे, गांव संयुक्त परिवार की मिशाल हुआ करते थे। गाँवों से विलुप्त होते वृक्ष उन्हें भौगोलिक रूप से भी नष्ट कर रहे हैं। उत्पादन की दर को बढ़ने की दौड़ वृक्षों के लिए विनाशकारी साबित हो रही है। वृक्षों के विनाश से जहां एक ओर मृदाअपरदन बढ़ रहा है वहीं दूसरी ओर नदियों तालाबों का भी अस्तित्व समाप्त हो रहा है, जिससे जल संरक्षण का संकट खड़ा होता जा रहा है। इसका परिणाम लगातार गिरते जलस्तर से रूप में दिखाई पड़ रहा है।

  • गांवों को आत्मनिर्भर बनाने का यह अच्छा अवसर है। कोविड 19 के चलते जहाँ एक ओर श्रमिक-मजदूरों का शहरो से अपने गांवों की ओर तेजी से पलायन हुआ है, वहीं मानसिक रूप से भी वे गांव में कार्यों को करने के लिए तैयार हुए हैं। यह सही समय है उन्हें गांवों में रोजगार के लिए प्रोत्साहित करने का। देश में बंदी के चलते लोग अपने आसपास ही रोजगार की इच्छा जाहिर करते हैं। यदि उनको दिशा निर्देश देने तथा आर्थिक सहायता उपलब्ध कराने का प्रयास सरकार तथा संस्थाओं द्वारा किया जाय तो निःसंदेह वे पीछे नहीं हटेंगे। कारण यह कि जो हजार किलोमीटर की दूरी को पैदल ही नापने की इच्छशक्ति रखता है, उसकी कार्य क्षमता पर संदेह नहीं किया जा सकता है। आवश्यकता है उन्हें सही दिशा देने की, चलने में तो वे खुद ही माहिर है।

  • आज इन सभी संदर्भों को दृष्टिगत रखते हुए गांवों को विसकित करने की आवश्यकता है जिससे कि उनका अस्तित्व भी बचा रहे और उनका विकास भी हो सके। गांवों को शहर बनाना उनका विकास करना नहीं है। गांवो को विसकित करने के लिए ग्रामीण मॉडल की तलाश करनी होगी।


                (विजय दर्पण टाइम्स, मेरठ में प्रकाशित)

योगेश मिश्र, रिसर्च स्कॉलर,
विश्वविद्यालय अनुुुदान आयोग
संपर्क:  6394667552

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