तुलसीदास की स्त्रीवादी दृष्टि : पुनर्विचार
समय के साथ सब कुछ बदलता रहता है, बावजूद इसके महापुरुषों के वक्तव्य समय सापेक्ष अर्थ ग्रहण करने की ताकत रखते हैं। उनके विचारों में निहित यह शक्ति उन्हें स्मरण करने के लिए पर्याप्त है। हमारे महापुरुषों के वैचारिक चिंतन की गहनता का स्वाभाविक परिणाम यह है कि वे सर्वकालिक तथा सार्वभौमिक होते हैं। उनके विचार देशकाल की सीमाओं में बंधे हुए नहीं होते हैं, जबकि वे एक निश्चित भूभाग के निश्चित कालखंड में कहें या लिखे गए होते हैं। यह प्रवृत्ति जब किसी साहित्यकार में निहित होती है तो निश्चित ही उसकी कृति कालजई कृति बनती है।
भारतीय साहित्य के महान
व्यक्तित्वों को जब भी रेखांकित किया जाएगा,
तो उनमें तुलसीदास का नाम अवश्य होगा। तुलसीदास मूलतः अवधी के कवि
हैं,
किन्तु उन्होंने अपने समय में प्रचलित काव्यभाषा ब्रज में भी रचना की है।
तुलसीदास की अमर काव्यकृति रामचरितमानस है। यदि हम इस पर विचार करें
तो सहज ही पाएंगे कि रामचरितमानस पहले धर्म ग्रंथ है,
बाद में काव्य ग्रंथ। इसके पीछे का कारण उसमें निहित वैचारिक उदात्तता
है,
जो किसी साहित्यिक ग्रंथ को धर्म ग्रंथ के रूप में परिवर्तित करती है।
तुलसीदास के वैचारिक चिंतन की गहनता ही है, जो लोगों के मन:मस्तिष्क पर घर कर लेती है।
आज अकेले रामचरितमानस के आधार पर कथा वाचन करने वाले वक्ता के समक्ष
हजारों-हजार की संख्या में श्रोताओं का बैठना,
इस बात का प्रमाण है कि तुलसी का चिंतन कितना गहन और गाम्भीर्यपूर्ण है।
श्रोताओं की भीड़ केवल वक्ता के व्यक्तित्व पर निर्भर करती है,
ऐसा समझना बहुत सामान्य बात है। किंतु यदि आप थोड़ा भी गंभीरतापूर्वक इस पर
चिंतन करेंगे तो पाएंगे कि उस वक्ता के ज्ञान का आधार तुलसी के जीवनानुभव
तथा चिंतन का परिणाम है,
जिसके संप्रेषणकर्त्ता के रूप में वह श्रोताओं के समक्ष होता है,
जबकि उसमें निहित शक्ति तुलसीदास के वैचारिक चिंतन की है जो आज के
भागमभाग की जिंदगी में भी
हजार से लेकर लाखों की संख्या में लोगों को एक जगह पर कुछ समय के लिए रोक
देती है।
इधर कुछ समय से स्त्रीवादी
विचारों द्वारा तुलसीदास पर आक्षेप लगाए जाने लगे हैं। इसके पीछे मानस की कुछ
पंक्तियों को वे बड़ी ही सहजता से रेखांकित कर देते हैं,
बिना इस बात का ध्यान दिए कि रामचरितमानस एक प्रबंध काव्य है और
इसमें सभी प्रकार के पात्र हैं - नायक से लेकर खलनायक तक। खलनायकत्व को
साबित करने के लिए रचनाकार के द्वारा उसके अनुरूप संवाद योजना का प्रावधान
करना बहुत ही स्वाभाविक है,
किंतु इसका आशय यह तो नहीं कि वह रचनाकार का भी मत हो। खैर... तुलसीदास की
स्त्रीवादी दृष्टि को रेखांकित करने के लिए मानस कि ये दो पंक्तियां ही
पर्याप्त हैं- ‘कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहुँ
सुख नाहीं।’
मानस का रचनाकार स्त्रियों
की दशा पर चिंतन करते हुए यह कह रहा है,
क्या फिर भी वह स्त्री विरोधी कहा जा सकता है। जब वह शबरी से यह कहलवाता है
कि – ‘अधम ते अधम अधम अति नारी।
तिन्ह महँ मैं मतिमंद अघारी॥’ तो वह तत्कालीन समय में स्त्रियों कि दशा का उल्लेख कर रहा होता
है, किन्तु कुछ विचारकों को इससे भी परहेज है,
जबकि ठीक इसकी अगली पंक्ति है –
‘कह रघुपति सुनु भामिनि बाता। मानउँ एक भगति कर नाता॥’
यह भी तो उसी रचनाकर कि पंक्ति है जो राम के मुख से कहलवाती है कि- भामिनी
मेरी बात सुनों मैं केवल एक भक्ति का ही संबंध मानता हूँ। अर्थात स्त्री या
पुरुष अथवा उच्च या निम्न के अनुसार मैं सम्बन्धों का निर्वहन नहीं करता हूँ।
मानस में तमाम ऐसी पंक्तियाँ मिलेंगी जो यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि
तुलसीदास सभी को समान दृष्टि से देखने वाले रचनाकार हैं।
तुलसीदास जीवन जगत के संपूर्ण संबंधों पर बहुत ही बारीकपूर्ण दृष्टि रखने
वाले रचनाकार के रूप में हमारे समक्ष आते हैं। उन्होने रामचरितमानस को अपने
चिंतन से जिस ऊंचाई पर पहुंचाया है, वह हम सभी के लिए गर्व की बात होनी चाहिए,
क्योंकि इतनी महानतम कृति रचने वाला साहित्यकार ‘स्वांतः सुखाय’
अपना उद्देश्य बताता है और बड़ी ही सहजता से इस बात को स्वीकारता है कि-
‘कवित विवेक एक नहिं मोरे। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे।।’
मित्रों! हम एक ही व्यक्तित्व से संपूर्ण की उम्मीद क्यों करें जो जितना दे
सका है,
उसमें निहित गाम्भीर्य पर विचार करने की आवश्यकता है, उस पर गर्व करने की आवश्यकता है,
न कि उस पर आक्षेप करने की। शेष...
भारतवर्ष प्रतिभाओं का देश
है। बड़ी से बड़ी प्रतिभा के सृजन की आवश्यकता पर जोर देने की आवश्यकता है
और यह तभी संभव होगा जब हम अपनी ज्ञान परंपरा से ज्ञानार्जन करते हुए आगे
बढ़ेंगे, न कि उस पर आक्षेप करते हुए।
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योगेश मिश्र ,रिसर्च स्कालर
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा
संपर्क : 6394667552
ईमेल :
yogeshmishra154@gmail.com
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