छायावादी कथा-साहित्य

छायावादी कथा-साहित्य

 

(योगेश कुमार मिश्र, शोधार्थी ,हिंदी एवं तुलनात्मक साहित्य विभाग 
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा महाराष्ट्र 442001)


खड़ी बोली हिंदी के विकास के चरमोत्कर्ष के रूप में छायावाद अपनी पहचान बनाता है, यद्यपि छायावादी साहित्य को स्थापित होने में समय लगा| उसके सभी साहित्यकारों को अपने साहित्य को स्थापित करने के लिए संघर्ष करना पड़ा| अपने सृजन का स्वयं स्पष्टीकरण देना पड़ा, किंतु आज छायावादी साहित्य की महत्ता को सभी स्वीकार चुके हैं| छायावादी साहित्य का खड़ीबोली के विकास में अहम योग है| उसने अनेक संभावनाओं को जन्म दिया, जो हिंदी साहित्य को ऊंचाइयों तक पहुंचाने में सफल रहे| यदि हम छायावादी साहित्य को केवल काव्य तक ही सीमित न समझे, तो अन्य विधाओं में भी छायावादी साहित्य अपनी पहचान को कायम करता है|
छायावाद के सभी बड़े रचनाकारों ने कविता की साथ कहानी, उपन्यास, निबंध, रेखाचित्र, संस्मरण, नाटक इत्यादि अनेक विधाओं को अपने सृजन से समृद्ध किया| जयशंकर प्रसाद ने कविता के साथ-साथ नाटकों और कथा साहित्य में भी समान रूप से ख्याति अर्जित की| छायावाद के दूसरे प्रमुख रचनाकार सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने कथा साहित्य के समृद्धि में अहम योग दिया| निराला ने कहानी और उपन्यास दोनों ही विधाओं को संवृद्ध किया| प्रकृति के सुकुमार कवि के रूप में अपनी पहचान कायम करने वाले सुमित्रानंदन पंत ने भी कहानी के क्षेत्र में पदार्पण किया| ‘पाँच कहानियां’ नामक संग्रह में उनकी कहानियां संकलित हैं|
छायावाद के प्रमुख साहित्यकार प्रसाद, निराला और पंत के कथा साहित्य पर नजर डालें तो यह देखने को मिलेगा कि उनके यहाँ उन पक्षों को छूने का प्रारंभिक प्रयास किया गया है, जो अब तक अनछुए रहे| इन साहित्यकारों के कथा साहित्य के केंद्र में उपेक्षितों को महत्व मिला| सामान्य मनुष्य को नायकत्व प्रदान करने का कार्य इनके कथा साहित्य ने किया| निराला ने ‘कुल्लीभाट’ और ‘बिल्लेसुर’ जैसे व्यक्तित्वों को केंद्र में रखकर उपन्यास सृजन किया| सुमित्रानंदन पंत ने ‘पानवाला’ नामक कहानी में पान लगाने वाले पर कहानी लिखी| छायावादी साहित्य सामान्य मनुष्य को स्थापित करने का कार्य करता है| निराला ने जिस प्रकार से ‘तोड़ती पत्थर’ कविता में उस स्त्री को स्थापित किया जो पत्थर तोड़ने का कार्य करती है| उसी प्रकार से कथा साहित्य में भी मजदूर वर्ग, अछूतों तथा वेश्याओं को केंद्र में रखकर कहानियों तथा उपन्यासों का सृजन किया|
 
छायावाद के प्रमुख साहित्यकार जयशंकर प्रसाद कविता, कहानी, नाटक सभी विविधाओं में समान रूप से अधिकार रखते हैं| उनके कथा साहित्य को छोड़कर छायावादी कथा साहित्य पर बात नहीं की जा सकती है| जयशंकर प्रसाद के कुल पाँच कहानी-संग्रह हैं, जिनमें 70 कहानियां संकलित हैं| प्रसाद के कथा साहित्य में संवेदना की गहरी अनुभूति है, कवि होने के कारण उनकी कहानियों में यह गुण सायास निहित है| संवेदनात्मक गहनता उनकी कहानियों का प्रमुख गुण है| जयशंकर प्रसाद जितने बड़े कवि हैं, उतने ही बड़े नाटककार तथा कथाकार भी| कविता, नाटक तथा कहानी के क्षेत्र वे समान रूप से अधिकार रखते हैं| प्रेमचंद के समानांतर कहानी के क्षेत्र में अपनी पहचान कायम रखते हैं, जब प्रेमचंद की कहानियों के आगे अन्य कहानीकारों की चमक फीकी पड़ गई थी| उस समय भी जयशंकर प्रसाद अपने लेखन से आभामंडित थे| वे अपनी अलग पहचान बनाने में सफल रहे| उन्होंने ऐतिहासिक कहानियां भी लिखी हैं, लेकिन सामग्री इतिहास की भले हो किंतु वर्तमान के लिए प्रासंगिक बनाकर परोसी गई है| इसमें कहीं भी बासीपन का एहसास नहीं है| अर्थात वे अपनी प्रासंगिकता को बनाए रखने में सफल रहे हैं| प्रसाद इतिहास के गड़े मुर्दों से भी वर्तमान की उपयोगी वस्तुओं को बनाने में सफल साबित हुए हैं|

जयशंकर प्रसाद का पहला कहानी-संग्रह ‘छाया’ 1912 में प्रकाशित हुआ| इसके 14 वर्षों के उपरांत उनका दूसरा संग्रह ‘प्रतिध्वनि’ प्रकाशित हुआ| यह जो बीच का अंतराल है, वह गुणात्मक अंतर को भी स्पष्ट करता है| पहले संग्रह की सभी कहानियों में भले ही छाया का भान हो, किंतु दूसरा संग्रह हिंदी कहानी की विकास परंपरा में महत्वपूर्ण साबित हुआ| इसमें संकलित कहानियों के कुछ पात्र आज भी अपनी अलग पहचान रखते हैं| यह अलग प्रश्न है कि प्रसाद के कहानियों की अपनी सीमाएं हैं, किंतु अपनी इन सीमाओं के अंदर भी वे बहुत कुछ दे गए हैं, जो हिंदी कहानी के लिए महत्वपूर्ण साबित हो सका| प्रसाद के यहाँ विषयों की विविधता और प्रयोग की नवीनता दिखाई पड़ती है| इसके साथ-साथ उनके यहाँ रुढिगत परंपराओं तथा बंधनों का अस्वीकार भी देखने को मिलता है| यदि हम महेश दर्पण के शब्दों में कहें तो- “नाटकीय अतिरेक हो या मनोवेगो की पड़ताल में किसी भी निष्कर्ष तक जा पहुंचना, प्रसाद का कहानीकार पूरी छूट लेता है| यह जरूर है कि उनके निष्कर्ष निर्मूल्य नहीं हैं|” 

जयशंकर प्रसाद की पहली कहानी है- ‘ग्राम’| उसमें पात्रों की मन:स्थितियों को महत्व प्रदान किया है, अपेक्षाकृत कथ्य के| प्रसाद की कहानियों की यात्रा जो प्रारंभ हुई, वह अपनी पहली कहानी में ही अपने लक्षण को दर्शा देती है और अंत तक उसकी परिव्याप्ति इनकी कहानियों में दिखाई देती है| अर्थात कथ्य की अपेक्षा इनकी कहानियां मन:स्थितियों को दर्शाने में अधिक सफल रही हैं| यही कारण है कि इनके यहाँ नाटकीय अतिरेक देखने को मिलता है| कहानियों में नाटकीयता आने का दूसरा कारण यह भी है कि प्रसाद एक सफल नाटककार भी रहे हैं| अतः उसका प्रभाव कहानियों में दिखाई पड़ना स्वाभाविक है| बावजूद इसके प्रसाद ने अपनी कहानियों में राष्ट्रप्रेम के तत्व को सर्वोपरि दर्शाया है| इनके यहाँ राष्ट्रहित के लिए आत्महित के बलिदान की परंपरा देखने को मिलती है| ‘पुरस्कार’ और ‘आकाशदीप’ कहानी में राष्ट्रप्रेम के तत्व आसानी से देखे जा सकते हैं| प्रेम और बलिदान को केंद्रीय तत्व के रूप में जिस कहानी में रेखांकित किया गया, वह है- ‘गुंडा’| इस कहानी में जयशंकर प्रसाद लिखते हैं कि- “वीरता जिसका धर्म था| वह अपनी बात पर मर मिटना, सिंहवृत्ति से जीविका ग्रहण करना, प्राण-भिक्षा मांगने वाले कायरों तथा चोट खाकर गिरे हुए प्रतिद्वंदी पर शस्त्र न उठाना, सताए निर्बलों को सहायता देना और प्रतिक्षण प्राणों को हथेली पर लिए घूमना उसका बना था| लोग उसे काशी का गुंडा कहते हैं|”यह कहानी प्रश्न भी खड़ा करती है कि आज जिस सन्दर्भ में ‘गुंडा’ शब्द का प्रयोग किया जाता है, वह कहां तक सही है| हिंदी कथा साहित्य के कुछ अविस्मरणीय पात्रों में से गुंडा एक है, जो अपने कार्य व्यवहार की उदात्तता से गुंडा कहलाता है, न कि निकृष्टता से| जयशंकर प्रसाद ने अपनी कहानियों में मनोविज्ञान को बखूबी रेखांकित किया है| वह अपने पात्रों मन:स्थितियों के विकास के लिए पूरी स्वतंत्रता प्रदान करते हैं| यही कारण है कि नाटकों की भांति उनकी कहानियों में भी उतार-चढ़ाव की स्थिति बनी रहती है, किंतु वे उद्देश्य से दिग्भ्रमित नहीं होते हैं| इस सन्दर्भ में डॉ. विजयमोहन सिंह ने भी संकेत किया है| वे लिखते हैं कि- “कहानियों में प्रसाद किसी विशेष जीवनदृष्टि या ‘दर्शन’ के रचनाकार नहीं बने रहते - प्रायः वे मन:स्थितियों के रचनाकार बन जाते हैं| लेकिन यह बिखरी-बिखरी मन:स्थितियाँ अपनी संपूर्णता में उनकी विशेष जीवन-दृष्टि का अंग बनकर ही व्यक्त होती हैं|” 

जयशंकर प्रसाद की ‘महुआ’ कहानी को पढ़ते हुए पाठक को कुछ नया मिलता है| यहाँ न इतिहासबोध है, न राष्ट्रप्रेम| यह इस कहानी में अंतर्द्वंद को दर्शाता गया है| एक शराबी जिसके जीवन का उद्देश्य केवल पेट पालना ही है, लेकिन निःसहाय बालक महुआ से इतना प्रभावित होता है कि अपनी जीवनशैली को बदलने की बात सोचता है, किंतु दूसरे ही क्षण बालक से वह अपना पिंड छुड़ाना चाहता है| अंततः शराबीपन को छोड़कर एक नए जीवन की शुरुआत उस बालक के साथ करने का संकल्प लेता है| प्रेम और कर्तव्य का अंतर्द्वंद प्रसाद की कहानी ‘पुरस्कार’ में देखने को मिलता है| कृषक-बालिका मधुलिका का कृषि महोत्सव से अलग होना उसके अंतःकरण के दुख को दर्शाता है| बावजूद इसके उसका यह कहना कि- “राजकीय रक्षण की अधिकारी तो सारी प्रजा है|”  उसके कर्तव्यनिष्ठता को दर्शाता है| यहाँ प्रसाद ने ‘प्रेम और कर्तव्य’ के बीच संतुलन को स्थापित करने का कार्य किया है| कहानीकार की सजगता मधुलिका को हिंदी कथा जगत की अविस्मरणीय पात्रों की श्रेणी में स्थान दिलाने में सफल रही है| कुछ सीमाओं के बावजूद प्रसाद की कहानियां हिंदी कहानी की विकास परंपरा में अपना अहम योग निभाते हैं| मधुरेश ने प्रसाद की कहानियों की विशिष्टाओं को रेखांकित करते हुए लिखा है कि- “अपनी रचनात्मक निष्ठा और सजग कला-बोध के कारण ही प्रसाद की कहानियां आज इतिहास की धरोहर मात्र होने से बची रह सकी है|” 

जयशंकर प्रसाद के द्वारा लिखित तीन उपन्यास हैं, जिनमें ‘कंकाल’, ‘तितली’ और ‘इरावती’ हैं| ‘इरावती’ पूर्ण नहीं हो सका| ‘कंकाल’ उपन्यास में प्रसाद ने भारतीय समाज के खोखलेपन को बखूबी रेखांकित किया है| ‘कंकाल’ उपन्यास में प्रसाद ने यह दर्शाने का प्रयास किया है कि हमारे समाज में कितनी रुढ़िग्रस्त धार्मिकता और थोथी नैतिकता है| उपन्यास में चित्रित सभी पुरुष पात्र जातीयता के आधार पर वर्णसंकर है, कृष्णशरण के अतिरिक्त| इस उपन्यास में भारतीय नारी जीवन की विवशता का बहुत ही मार्मिक चित्रण किया गया है| तारा (यमुना) का यह कहना कि- “विजय बाबू ! मैं दया की पात्री एक बहन बनना चाहती हूं| है किसी के पास इतनी निःस्वार्थ स्नेह संपत्ति, जो मुझे दे सके|”  यह कथन आधुनिक समाज के ऊपर एक प्रश्नचिह्न खड़ा करता है, जब निःस्वार्थ संबंधों का विलोप होता जा रहा है| आज प्रत्येक संबंध के पीछे स्वार्थ की कामना रहती है| प्रसाद के इस उपन्यास में काफी धूम मचाई| उपन्यास सम्राट मुंशीप्रेमचंद ने उन्मुक्त कंठ से इसकी प्रशंसा की| उन्होंने लिखा कि- “यह प्रसाद का पहला उपन्यास है, पर आज हिंदी के बहुत कम ऐसे उपन्यास हैं, जो इसके सामने रखे जा सकते हैं|”  मुंशी प्रेमचंद का यह कथन इस ओर संकेत करता है कि तत्कालीन समय में सामाजिक यथार्थ को रेखांकित करने वाले कम ही उपन्यासकार थे| इस प्रकार प्रसाद अपने उपन्यासों से एक नई पृष्ठभूमि को विकसित करते हैं|

निराला उस समय उपन्यास लिखना आरंभ करते हैं, जब उपन्यास के क्षेत्र में प्रेमचंद स्थापित हो चुके थे । निराला औरों की अपेक्षा उनके उपन्यासों को महत्व देते थे, तथापि वे उनके महिमामंडन की प्रवृत्ति के पक्षधर न थे। निराला की शिक्षा बंगाल में हुई। उन्हें बांग्ला भाषा का पर्याप्त ज्ञान था। उन्होंने बांग्ला के उपन्यासों को पढ़ रखा था। बांग्ला उपन्यासों की तुलना में उन्हें हिंदी उपन्यास कमतर नजर आते थे। अतएव उन्होंने उपन्यास लेखन का मन बनाया।
निराला का पहला उपन्यास ‘अप्सरा’ 1931 ई. में प्रकाशित हुआ। बांग्ला उपन्यासों का प्रभाव उस पर देखने को मिलता है। प्रेम उनके लिए वर्जित विषय न था। यदि गौर करें तो इस उपन्यास में निराला प्रेमचंद से कुछ मामलों में आगे बढ़े दिखाई देते है। निराला का ‘अप्सरा’ उपन्यास वेश्या-जीवन पर केंद्रित है। इसकी नायिका कनक वेश्या की पुत्री है। प्रेमचंद ने भी वेश्याओं पर आधारित उपन्यास लिखे हैं। उनमें वेश्याओं के प्रति सहानुभूति तो दिखाई पड़ती है, लेकिन उन्हें सामान्य जीवन के लिए पुनर्स्थापित करने का प्रयास नहीं दिखाई पड़ता। निराला कनक का विवाह उच्चकुलीन राजकुमार से करवाकर उसे सामान्य जीवन जीने के लिए प्रेरित करते हैं। इस प्रकार के सामाजिक परिवर्तन का साहस उनके समकालीन किसी साहित्यकार में नहीं दिखता है। निराला कनक को एक विदुषी के रूप में स्थापित करने के बाद उसे वैवाहिक रस्म में बाँधते हैं, जिससे पाठक सहजतापूर्वक कनक और राजकुमार के इस बंधन को स्वीकार कर लेता है। दोनों ही उच्च कोटि के विद्वान हैं। शैक्षिक समता के आधार पर निराला ने उन्हें एक बंधन में बाँधने का कार्य किया है। इस प्रकार हम देखें कि शिक्षा का हथियार कनक को वेश्या जीवन से निकालकर पुनः सामान्य मानवीय जीवन के लिए स्थापित करने में सफल रहा, जिसका प्रयोग निराला ने अपने ‘अप्सरा’ उपन्यास में किया है।
निराला ने किसान शिक्षा, स्त्री शिक्षा तथा दलित एवं मजदूर शिक्षा - सभी का उल्लेख अपने उपन्यासों में किया है। ‘अलका’ उपन्यास में शिक्षा के लिए किए जाने वाले संघर्ष को दर्शाया गया है। निराला के पात्र अपनी शिक्षा के लिए संघर्ष करते दिखाई देते हैं। शिक्षा के लिए संघर्ष करने वाले यही पात्र आगे चलकर समाज के लोगों को साक्षर बनाने की दिशा में अग्रसर होते हैं। वे उन क्षेत्रों में जाकर जहाँ शिक्षा की भारी कमी थी, वहाँ के लोगों को साक्षर बनाने का कार्य करते हैं। निराला के प्रायः सभी उपन्यासों में जमींदारों का उल्लेख मिलता है। ‘अलका’ उपन्यास में चित्रित जमींदार स्नेहशंकर का चित्र निराला ने अलग तरीके से दर्शाया है। प्राय: जमींदार और किसान-मजदूरों के बीच का संबंध तनावपूर्ण ही चित्रित किया जाता रहा है, लेकिन इसमें स्नेहशंकर को उच्च कोटि का विद्वान दर्शाने का आशय निराला का यह रहा है कि वे शिक्षित हैं, अतएव शिक्षा के महत्व को समझते हैं। अपनी पुस्तकों से प्राप्त होने वाली आमदनी से गाँव के किसानों के शिक्षा विभाग की मदद करते हैं। इस प्रकार ‘शिक्षा’ ही वह कारक है, जो जमींदारों को संवेदनशून्यता से बचाती है तथा सामाजिक सरोकारों को बढ़ावा देने का कार्य करती है।
निराला के उपन्यास के पात्र अपनी शिक्षा को आगे बढ़ाने के लिए बाहर जाते हैं, वहाँ से वापस आकर वे सामाजिक सरोकारों में संलग्न होते हैं। उनकी नौकरी में रुचि नहीं होती है। अशिक्षित किसानों के बालकों की शिक्षा का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेते हैं। बदले में उन्हें केवल भोजन की आवश्यकता होती है। वे प्रेम भाव से स्वार्थ रहित होकर उन्हें शिक्षित करने का कार्य करते हैं। निराला ने अपने उपन्यासों में कुछ ऐसी महिला पात्रों का उल्लेख किया है, जो बालिकाओं की शिक्षा के लिए कार्य करती हैं। उपन्यास में निराला में नैश पाठशाला खोलने की बात कही, जिससे कामकाजी मजदूरों को भी शिक्षा दी जा सके, क्योंकि यह वर्ग दिन में आजीविका के कार्यों में व्यस्त रहता है, जो उसके जीवन का आधार है। कुलियों की स्त्रियों के लिए नैश पाठशाला का प्रावधान निराला के ‘अलका’ उपन्यास में देखने को मिलता है।

इस प्रकार हम देखें कि निराला ऐसे उपन्यासकार के रूप में अपना स्थान सुनिश्चित करते हैं जो शिक्षा के महत्व को गंभीरतापूर्वक अंकित करते हैं। निराला के उपन्यासों के केंद्र में शिक्षा की आवश्यकता निहित है। वे शिक्षा के वर्णन में रुचि दिखाते हैं, जैसे ही उन्हें थोड़ा भी अवसर मिलता है, शिक्षा की बात करने लगते हैं। उन्होंने कुछ ऐसे पात्रों को भी चित्रित किया है जो स्वयं शिक्षक के रूप में कार्य नहीं करते हैं, लेकिन वे शिक्षा के लिए लोगों की सहायता करने में तत्पर रहते हैं।

निराला ने ‘निरुपमा’ उपन्यास में भारतीय विश्वविद्यालय में हो रही नियुक्तियों के सच का पर्दाफाश किया है। भारतीय विश्वविद्यालयों में नियुक्ति के प्रतिमानों : जातिवाद, धर्मवाद तथा परिवारवाद की ओर निराला ने संकेत किया है। निराला ने इस बात को भी रेखांकित किया है कि अपने यहाँ नियुक्ति रिश्वत के आधार पर मिलती है, न की योग्यता के आधार पर। बीसवीं सदी के चौथे दशक में लिखा गया यह उपन्यास आज के समय में अपनी प्रासंगिकता को दर्शाता है, जो निराला की दूरदृष्टि का परिचायक है। एक साहित्यकार अपने समय से कितना आगे चलता है इसका जीता जागता उदाहरण निराला का ‘निरूपमा’ उपन्यास है। इस उपन्यास में पी-एच. डी. उपाधि धारक बेरोजगारों की समस्या का चित्रण किया है जो आज के समय का सच साबित हो रही है। लगातार बढ़ती पी-एच. डी. धारकों की संख्या तथा उच्च शिक्षा में रोजगार के अवसरों का दूर तक न लक्षित होना यह साबित करता है कि उच्च उपाधि धारकों को भी सामान्य कार्यों को करना पड़ेगा, जैसा कि निराला ने अपने ‘निरूपमा’ उपन्यास में लंदन की डी. लिट्. उपाधि धारक कुमार को बूट पॉलिश करता हुआ दिखा कर संकेत किया है| यदि गौर करेंगे तो दिखेगा कि तत्कालीन कोई भी साहित्यकार इस प्रकार के सामाजिक परिवर्तन की बात करने का साहस नहीं रखता है। ऐसी साहसिक शक्ति केवल निराला में ही देखने को मिलती है।
निराला ने स्त्री शिक्षा, किसान शिक्षा तथा मजदूर शिक्षा को आगे बढ़ाने की बात कही है। निराला अँग्रेजी भाषा के ज्ञान के पक्षधर रहे हैं। वे अँग्रेजी को सामयिक प्रधान भाषा समझकर उसके ज्ञानार्जन की बात करते हैं। निराला दृष्टि के विस्तार के लिए भी अन्य भाषाओं के ज्ञान की बात करते हैं। उनके प्रमुख पात्रों को अँग्रेजी की शिक्षा मिली होती है। निराला ने ‘निरूपमा’ उपन्यास में विदेशी शिक्षा के संदर्भ में अपने विचारों को अभिव्यक्ति दी है। उनका मानना है कि शिक्षा कहीं से भी प्राप्त हो, वह व्यक्तित्व के निर्माण में सहायक होती है। उससे दृष्टि का विस्तार होता है।

निराला के उपन्यास ‘कुल्लीभाट’ तथा बिल्लेसुर बकरिहा’ कई दृष्टियों से सराहनीय हैं। ‘कुल्लीभाट’ उपन्यास में निराला ने ‘अछूतों की पाठशाला’ का जिक्र किया है। इस बात को भी उन्होंने रेखांकित किया है कि उच्च वर्गीय अधिकारी अछूतों के लिए खोली गई पाठशाला को सहायता नहीं देते हैं, क्योंकि वे इस बात से परिचित हैं कि ये जातियां शिक्षित होने पर संगठित हो जाएंगी, जिससे उनके शोषण का रास्ता बंद हो जाएगा। इन अछूतों के प्रति निराला की सहानुभूति उपन्यास में उभरकर सामने आती है। कुल्ली की पाठशाला में बैठे निराला यह विचार करते हैं कि इन जातियों का भी योग इतिहास में कम नहीं, पर इनके नामों-निशान का उल्लेख कहीं नहीं मिलता। निराला ने महसूस किया कि इनके दुखों का मूल कारण अशिक्षा में निहित है। ‘कुल्लीभाट’ तथा ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ वे उपन्यास हैं, जहाँ पहुँचकर निराला अपने कथन ‘गद्य जीवन संग्राम की भाषा है’ को सार्थकता प्रदान करते हैं। ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ में शिक्षा संबंधी विचारों का उल्लेख नहीं मिलता है, किंतु भाषा के आधार पर यह सराहनीय कृति है। ‘कुल्लीभाट’ तथा ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ उपन्यासों से हिंदी में ‘पिकारेस्ट उपन्यास’ की शुरुआत मानी जाती है।
निराला के अंतिम चार उपन्यासों : ‘चोटी की पकड़’, ‘काले कारनामे’, ‘चमेली’ तथा ‘इंदुलेखा’ में से सभी अपूर्ण कृतियाँ हैं। इनमें से ‘काले कारनामे’ में  निराला की शिक्षा-दृष्टि का परिचय मिलता है। इस उपन्यास में निराला ने मनोहर के रूप में एक ऐसे व्यक्तित्व का निर्माण किया है, जिसकी गाँव के लोगों के प्रति सहानुभूति है। उनकी सहायता के लिए वह तत्पर दिखाई देता है। वह काशी में शूद्रों के लिए  पाठशाला चलाता है, जिसमें उन्हें संस्कृत की शिक्षा देने का प्रावधान है। निराला द्वारा ज्ञान की नगरी काशी में शूद्रों के लिए पाठशाला और उसमें उन्हें संस्कृत शिक्षा दिए जाने की बात करना यह दर्शाता है कि वे शूद्रों को भी परंपरागत ज्ञान का अधिकारी मानते हैं तथा उन्हें उसी आसन पर आसीन होते देखना चाहते हैं, जिस पर कि समाज के अन्य लोग आसीन हैं। निराला को शिक्षा के क्षेत्र में किसी प्रकार का भेदभाव स्वीकार नहीं, चाहे वह स्त्री-पुरुष के आधार पर हो या सवर्ण-दलित के आधार पर हो। सभी को शिक्षा के समान अवसर की बात निराला के उपन्यासों में उभरकर सामने आती है।

साहित्य सृजन में शिल्प पक्ष का अहम योग होता है। साहित्यकार की सृजनात्मक क्षमता की परिचायक भाषा होती है। भाषा की शक्ति साहित्यकार की श्रेष्ठता को भी दर्शाती है। निराला के आरंभिक उपन्यासों की भाषा में उनकी कवित्व-शक्ति प्रभावी रही है। अतः भाषा लच्छेदार, संस्कृतनिष्ठ तथा लंबी वाक्य संरचना से युक्त है। ‘कुल्लीभाट’ और ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ में निराला उपन्यास कला की चुनौतियों को पूरा कर सके हैं। यहाँ साहित्य को कुछ नया देने का उनका प्रयास सफल रहा है। छोटे-छोटे वाक्य संरचना वाली ये कृतियाँ नि:संदेह भाषा का सशक्त उदाहरण पेश करती हैं। निराला के अपूर्ण उपन्यासों में कथानक उलझे हुए दिखाई देते हैं, फिर भी उनका अपना महत्त्व है।

निराला के कुल पाँच कहानी-संग्रहों का उल्लेख मिलता है- ‘लिली’, ‘सखी’, ‘सुकुल की बीबी’, ‘चतुरी चमार’ और ‘देवी’। इनमें  ‘सखी’ को ही 1945 ई. में ‘चतुरी चमार’ नाम से प्रकाशित कराया गया। परिवर्तन केवल इतना कि ‘चतुरी चमार’ नामक कहानी को क्रम में सबसे पहले रख दिया गया है। ‘देवी’ कहानी-संग्रह में संकलित कुल दस कहानियों में से नौ पुराने संग्रहों से हैं; एक नई कहानी है – ‘जानकी’।

उपन्यासों की तरह कहानियों के लेखन में भी निराला कल्पना से यथार्थ की ओर अग्रसर हुए हैं। उनका प्रतिरोधी स्वर सशक्त होता गया है। कहानियों में निराला ने सामाजिक अन्याय, रूढ़ियों तथा जाति-प्रथा का विरोध किया है। उन्होंने मानवतावाद का पक्ष लिया है तथा सामाजिक संबंधो में प्रेम की महत्ता को सर्वोपरि माना है, न कि जाति-व्यवस्था को। इनके यहाँ विधवा-विवाह को प्रोत्साहन मिला है। स्त्री तथा दलित शिक्षा की ओर भी ध्यान केन्द्रित किया गया है। ‘श्यामा’, ‘पद्मा और लिली’ तथा ‘चतुरी चमार’ इनकी महत्त्वपूर्ण कहानियाँ हैं। ‘चतुरी चमार’ में निराला स्वयं भी अंकित है। ग्रामवासियों को निराला की पूरी सहानुभूति प्राप्त है। यह हिंदी की चर्चित कहानियों में से एक है। ‘पद्मा और लिली’ कहानी में शिक्षा से उत्पन्न आत्मविश्वास के कारण ही पद्मा पिता की बातों में नहीं आती है। निराला की यह कहानी जाति-बंधन की परम्परा को ध्वस्त करती है। इस कहानी में स्त्री- शिक्षा, स्त्रियों की आत्म-निर्भरता और निर्णय लेने की क्षमता को दर्शाया गया है। पद्मा के आत्म-विश्वास को दर्शाते हुए निराला ने लिखा है कि- “जिस जाति के विचार ने उसके पिता को इतना कमजोर बना दिया था, उसी जाति की बालिकाओं को अपने ढंग पर शिक्षित कर, अपने आदर्श पर लाकर पिता की दुर्बलता से प्रतिशोध लेने का उसने निश्चय कर लिया।”  निराला के पात्र विरोध करते हैं तब भी समाज के लोगों की सेवा ही करते हैं।

निराला के कहानियों की एक विशेषता यह रही है कि नायकत्व सामान्य पात्रों को दिया गया है। इनकी कहानियाँ समाज के अराजक बंधनो को तोड़ती नजर आती हैं। इन कहानियों में चित्रित ज़्यादातर नायिकाएँ  शिक्षित हैं, उन्हें अँग्रेजी का भी ज्ञान है। उनके पति या प्रेमी भी उच्च शिक्षित हैं तथा विदेश भी पढ़ाई के लिए जाते हैं; किन्तु वापस आकार समाज सेवा करते हैं, न की व्यवसाय। विवाह में रूढ़ियों का खंडन और प्रेम का मंडन निराला के कहानियों में देखने में  मिलता है।

हिन्दी साहित्य मे कथाकार के रूप में जयशंकर प्रसाद तथा सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ को वह ख्याति न मिली, जिसके वे अधिकारी थे। इसका एक कारण इनके साहित्य की विविधता भी है। इनके उपन्यासों तथा कहानियों में निहित चिंतन उन्हें मानवतावादी कथाकार के रूप में स्थापित करते हैं। छायावादी कथाकार अपने समय की सामाजिक तथा राजनैतिक परिस्थितियों को दृष्टिगत रखते हुए आगे बढ़े हैं। वह तत्कालीन सामाजिक रूढ़ीओं को तोड़ने का कार्य करता है। जन सामान्य तक वह अपनी पहुँच बनाता है। छायावादी कथाकारों ने सर्वप्रथम दलितों तथा अछूतों की शिक्षा के लिए स्वर उठाया। कामकाजी मजदूरों के लिए नैश (रात्रि) पाठशाला खोलने की बात कही। अपने इन्ही विचारों के चलते छायावादी कथा साहित्य अलग छाप छोड़ता है। विषयों की गहराई में जाकर रेखांकन करना तथा प्रतिरोध के स्वर को बढ़ावा देना और नई लीक का निर्माण करना छायावादी कथाकारों की प्रमुख विशेषता रही है। जरूरत है इन विचारों पर अमल करने तथा उन्हे प्रकाश में लाने की। अपनी शक्ति एवं सीमाओं के बावजूद छायावादी कथा साहित्य हिंदी की अमूल्य निधि है।
...........................................................

पता : प्रयागराज, उत्तर प्रदेश
Email : yogeshmishra154@gmail.com
संपर्क : 6394667552 

Comments

Popular posts from this blog

तारसप्तक के कवियों को याद करने की ट्रिक

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और राष्ट्रभाषा हिंदी