रामचरितमानस में मानव-पर्यावरण संबंध
पर्यावरण आज के समय का चर्चित शब्द है, बल्कि यह वर्तमान में स्त्री, दलित, आदिवासी, बाल, वृद्ध के सदृश अब विमर्श के दायरे में है। इधर औद्योगिक सभ्यता के प्रभाव में इस नए विमर्श को जन्म दिया। समीक्षा और शोध का नया प्रतिमान इससे गढ़ा जा सकता है। जिस प्रकार से स्त्रीवादी समीक्षा में प्रत्येक वस्तु को स्त्रियों की दृष्टि से देखे जाने की कोशिश की जाती है, उसी प्रकार से प्रत्येक वस्तु को पर्यावरण के नजरिए से भी देखे जाने की आवश्यकता है। भारतीय बाजार में पर्यावरण के अनुकूल बनाए गए उत्पादों को ‘इको-मार्क’ दिया जाता है, इसी प्रकार से पर्यावरण के प्रति सजग साहित्य को भी ‘इको-मार्क’ दिए जाने का प्रचलन शुरू किया जाना चाहिए। पर्यावरण के प्रति बढ़ती बेरुखी को कम करने की दिशा में यह असरदार कदम होगा। समय के साथ बदले मानव- पर्यावरण के संबंध को सुधारने की दिशा में यह एक सही शुरुआत हो सकती है। इस औद्योगिक सभ्यता में पलने-बढ़ने वाला मानव सभी को अपनी सुविधा के लिए प्रयोग करने का आदी हो गया है। उसकी लालच जितनी बढ़ रही है, उसमें संवेदना का स्तर उतना ही कम होता जा रहा है। वह लगातार पर्यावरण को क्षति पहुंचा रहा है, जिससे उसके साथ हमारा संबंध बिगड़ता जा रहा है, जबकि हम सभी को ज्ञात होना चाहिए कि “पर्यावरण वह है जिसके अंक में हम अवस्थित होते हैं, जिसकी चेतना से हम संचालित होते हैं और जिसकी प्राणवायु से हम जीवंत रहते हैं।”[i] अतः उसे क्षति पहुंचाकर हम स्वयं भी क्षतिग्रस्त हो रहे हैं। इस पर गंभीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है।
मध्यकालीन हिंदी साहित्य के कवि तुलसीदास द्वारा रचित ‘रामचरितमानस’ को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। भारतीय जनमानस में उसके दोहे, चौपाईयां आज भी रचे बसे हैं, जिससे उसकी महत्ता का अंदाजा लगाना कठिन नहीं है। वैसे भी उत्तर भारत के राम बहुत कुछ तुसली के राम हैं। यही कारण है कि भगवान राम की जयकार करते हुए भक्त गण बाबा तुलसी की जयकार प्रायः लगा ही देते हैं। तुलसी राम के हैं, इस बात में कोई संशय नहीं; क्योंकि तुलसी ने स्पष्ट कर दिया है कि :
“एक भरोसो एक बल एक आस बिस्वास। एक राम घनस्याम हित चातक तुलसीदास।।”[ii]
चातक कि भक्ति पर किसी को संदेह नहीं है और तुलसी राम के लिए चातक बने हुए हैं। यहाँ गौर करने की बात यह है कि चातक मानवेतर प्राणी है, जो अपनी सत्यनिष्ठा के कारण उदाहरण बना हुआ है। पर्यावरण के इन जीव-जन्तुओ, वनस्पतियों, पक्षियों से आज हमारी दूरी बढ़ती जा रही है। इनसे हमारे रिश्ते समाप्त हो रहे हैं, जबकि हम अपने प्राचीन कृतियों को उठाकर देखें तो पाएंगे कि ये हमारे जीवन में किस प्रकार से योग देते रहे हैं। इस दृष्टि से यहां पर ‘रामचरितमानस’ को देखने का प्रयत्न है।
तुलसी के राम बहुत कुछ ‘मानस’ के राम हैं। ‘हनुमान चालीसा’ के बाद तुलसी की जिस कृति को सर्वाधिक पढ़ा जाता है, वह ‘रामचरितमानस’ ही है।। संक्षेप में इसे ‘मानस’ नाम से उद्दृत किया जाता है। मानस में वर्णित मानव तथा मानवेतर पशु-पक्षी, जीव-जंतु, वनस्पतियां तथा पर्यावरण के अन्य घटकों के प्रति मानव का रुख कैसा रहा? इस पर विचार-विमर्श किया जाना चाहिए। मानस में वर्णित राम का एक स्वरूप वनवासी का भी है। वनवासी राम की शुरुआत कहां से हुई? इसे स्पष्ट रूप से इन पंक्तियों के माध्यम से देखा जा सकता है।
“पिता दीन्ह मोहि कानन राजू। जहं सब भांति मोर बड़ काजू।।”[iii]
राम माता कौशल्या से बता रहे हैं कि पिता ने अयोध्या का राजा तो भारत को बनाया, लेकिन मुझे भी जंगल का राजा बना दिया। ऐसा नहीं है कि मुझसे राजा का पद छीन लिया; बल्कि उन्होने केवल राज्य का परिवर्तन कर दिया। अयोध्या की जगह कानन अर्थात जंगल का राजा मुझे बना दिया दिया। हालांकि इससे पूर्व भी विद्यार्जन हेतु वे गुरु विश्वामित्र के आश्रम में रहे। अतः वन की संस्कृति से वे भली-भांति परिचित हैं।
इस प्रकार से ‘जंगल के राजा’ राम के शासन की शुरुआत यहीं से हुई। अब जंगल का राजा भी वहां के निवासियों के अनुरूप रहना पड़ेगा। इसलिए वे वनवासी के रूप में आगे का जीवन व्यतीत करते हैं। राजा का प्रथम कर्तव्य अपने राज्य की सुरक्षा करना है। इस दृष्टि से राज्य के पर्यावरण को क्षति पहुंचाने वालों से राम को आपत्ति है। राजा व्यक्तिगत एवं सामूहिक दोनों ही स्तर पर राज्य की रक्षा करता है। इसलिए राम तमाम राक्षस कुल के लोगों से युद्ध करते हैं; क्योंकि यह कुल पर्यावरण का विनाशक है। वहां के निवासियों, जीव-जंतु, पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों, नदियों-जलाशयों इत्यादि को नुकसान पहुंचता है। ये सभी जंगल के मूल निवासी जीव-जन्तु, वनस्पतियां उनसे सुरक्षा की उम्मीद किए हुए हैं। इसलिए राम राजा होने का कर्तव्य निभाते हुए इस कुल का विनाश करना चाहते हैं, जिससे राज्य में पर्यावरण समृद्ध हो सके, सुख शांति का विकास हो।
पर्यावरण की समृद्धि के लिए वन में वास करते हुए राम के द्वारा कई प्रयास किए जाते हैं। राम के इस कार्य में सीता और लक्ष्मण भी सहयोगी हैं। राम वहां के निवासियों के साथ मिलकर नदियों, जलाशयों की सफाई करते हैं। अपने आस-पास वृक्षों को रोपित करते हैं, सीता वृक्षों को अपने हाथों से सींचती है, जिससे पर्यावरण समृद्ध हो सके। इसी के परिणाम स्वरूप वह स्थल रमणीय बन जाता है। इसका उल्लेख तुलसीदास मानस में करते हैं :
“तुलसी तरुबर बिबिध सुहाए। कहुँ सियँ कहुँ लखन लगाए॥”[iv]
सीता और लक्ष्मण भी इस वृक्षारोपण को बढ़ावा दे रहे हैं। परिवेश को सुंदर बनाने के लिए अनेक यत्न वहां के निवासियों के सहयोग से किए। वाटिका विकसित की गई जिससे वातावरण सुंदर-सुरम्य तथा शांतिप्रिय बन सके। इसी रमणीयता के कारण उनकी पर्णकुटी के पास हिरणों का समूह निवास करता है। इनके साथ वे मानव के सदृश्य व्यवहार करते हैं; क्योंकि वे सभी उन्हीं के राज्य के निवासी हैं, उनके पड़ोसी हैं, मित्र हैं। इसे और स्पष्ट रूप में समझना है तो मानस की इस पंक्ति को देखें :
“हे खग मृग हे मधुकर श्रेणी। तुम देखी सीता मृगनैनी।”[v]
यहां हम देखें सीता का हरण होने पर राम अपने राज्य के निवासियों, इन्हीं पड़ोसियों से उनके बारे में पूछ रहे हैं। एक बात गौर करने लायक है, वह यह कि सीता के लिए ‘मृगनैनी’ शब्द का इस्तेमाल किया है; क्योंकि वे सभी पशु-पक्षी, पेड़-पौधे मृग से परिचित हैं। इसीलिए सीता की पहचान के लिए बता रहे हैं। उनके नेत्र मृग के समान हैं, जिससे पहचानने में संकट न हो और बता सकें। मृगनयनी शब्द बहुत सोच विचार समझकर प्रयोग किया गया है। अब प्रश्न यह है कि वन के राजा राम की पत्नी का हरण हो गया है। यह राज्य की प्रतिष्ठा का सवाल है। दूसरे राजा के साथ राज्य के निवासियों का तत्पर होना स्वाभाविक है। इसलिए सीता की खोज में वानर, भालू, सहित अनेक जीव-जंतु सहयोग करते हैं। खोज हो जाने पर रावण से सीता को छुड़ाने के लिए वानर-भालुओं की सेना युद्ध हेतु प्रस्तुत है; क्योंकि जंगल के राजा के पास तो यही सेना होगी। वैसे इन जीव-जंतुओं, वानर-भालूओं का राक्षस कुल से स्वयं भी विरोध है; क्योंकि वे इनके आवास तथा खाद्य पदार्थों को क्षति पहुंचाते रहते हैं। इस कारण से भी वे राम के सहयोगी बनते हैं। राजा होने के नाते राम नेतृत्व करते हैं। जंगल के राजा होने के नाते राम मानवी सेना का उपयोग नहीं करते हैं; बल्कि अपने राज्य के वानर-भालूओं की सेना के ही सहारे विजय हेतु कोशिश करते हैं। उनके सेनापति भी इसी प्रजाति से हैं- सुग्रीव। सलाहकार के रूप में रीछपति जामवंत हैं। इनमें सभी उदाहरण यह बताने के लिए पर्याप्त है कि ‘वन के राजा’ राम ने निवासियों के साथ बिना किसी भेदभाव के सैनिक, सेनापति, सलाहकार का पद दिया। इससे मानव तथा मानवेतर प्राणियों के संबंध का पता चलता है कि वे इन सभी पर्यावरण में व्याप्त प्रजातियों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध रखते हैं। उनका सहयोग करते हैं। इसी मानवीय संबंध के कारण जटायु रावण से सीता को छुड़ाने की कोशिश करता है। इसके पीछे उनका अपना कर्तव्यबोध है, न कि किसी ने उन्हें ऐसा करने के लिए आदेशित या बाध्य किया है। फिर भी वे अपने कर्तव्य के निर्वहन हेतु राम को सीता के बारे में रावण के द्वारा अपहरण की जानकारी देते हुए प्राण त्याग देते हैं। प्रतिकार स्वरूप राम स्वयं उनका अंत्येष्टि संस्कार करते हैं। यहां राम के नगर की संस्कृति पर गौर करने की आवश्यकता है। पक्षी का अंतिम संस्कार राजा के द्वारा किया जा रहा है। यह मानव-पर्यावरण संबंध का अप्रतिम उदाहरण है।
सीता की खोज हेतु अपने प्राणों की बाजी लगाकर हनुमान लंका जाते हैं। वापस आकर जब राम को सीता के बारे में बताते हैं तो राम ने क्या कहा है? इस पर गौर करने की अत्यंत आवश्यकता है :
“सुनु कपि तोहि समान उपकारी। नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी॥
प्रति उपकार करौं का तोरा। सनमुख होइ न सकत मन मोरा॥”[vi]
हनुमान के द्वारा किए गए उपकार (सीता की खोज) के लिए राम ने जिन शब्दों में उनकी कृतज्ञता ज्ञापित की वह हमारी संस्कृति को समृद्ध करने वाली है। राम राजा है। हनुमान सेवक है। राजा का सैनिक के द्वारा किए गए उपकार के लिए यह कहा जाना कि मैं तुम्हारा इतना ऋणी हूं कि मेरा मन भी तुम्हारे सामने आने में सकुचा रहा है। यह मानव और मानवेतर प्राणियों के संबंध का राजा-प्रजा, शासन-सेवक के संबंध का अद्वितीय उदाहरण है। इस प्रकार की कृतज्ञता किसी राज्य का राजा कभी ज्ञापित कर सकता है क्या? यह केवल ‘वन के राजा’ के वश की बात हो सकती है। अन्य राजा तो धन-धान्य से उसके बदले को चुका देंगे, उन्हें संकोच किस बात का होगा? क्या राम के राज्य, उनकी सभ्यता-संस्कृति के इन मानव-पर्यावरण संबंध के उदाहरणों से कुछ सीख नहीं लेनी चाहिए। राम पर्यावरण के छोटे से छोटे जीव-जंतुओं, पशु-पक्षियों के कार्य की सराहना करते हैं। लंका तक पहुंचने के लिए किए जा रहे सेतु निर्माण में एक गिलहरी द्वारा बालू के कणों को ले जाने कि कोशिश करते देख राम उसकी पीठ पर अपनी उंगलियों को फेर कर उसके योग को स्वीकार करते हैं। आज कितने शासक हैं,जो अपने सैनिकों के ऐसे छोटे कार्यों पर ध्यान देते होंगे या उसके लिए उनकी कृतज्ञता ज्ञापित करते हो।
आज आवश्यकता है पर्यावरण के संरक्षण की। धरती से गायब होती वनस्पति हो या फिर विलुप्त होती प्रजातियाँ। सभी चिंता का विषय हैं, साथ में संकेत भी हैं, इस धरा के उजड़ने की, क्योंकि यदि विलुप्त होने की क्रिया रुकती नहीं है तो धीरे-धीरे करके सभी को यहाँ से विदा होना पड़ेगा। आज जिनका अनुरूप परिवेश नहीं मिल पा रहा है, वे समाप्ति की ओर बढ़ रहे हैं, लेकिन यह हम सभी के लिए भी चेतावनी है। ऐसा नहीं है कि इस वनस्पतियों या पर्यावरण के अन्य घटकों के अभाव में भी मानव कायम रहेगा। अतः मानव को पर्यावरण के साथ ताल-मेल बैठा के ही आगे बढ़ना चाहिए हमें ‘बढ़ो और बढ़ने दो’ की नीति अपनानी होगी, न कि परिवेश में व्याप्त सभी जीव-जंतुओं, वनस्पतियों के अधिकार को छिनकर अपनी सत्ता कायम करनी चाहिए।
संदर्भ सूची :
[i] मन मानस में राम(2021) : श्रीप्रकाश मणि त्रिपाठी. वाणी प्रकाशन : नई दिल्ली
[ii] दोहावली : तुलसीदास. गीता प्रेस : गोरखपुर
[iii] अयोध्याकाण्ड, रामचरितमानस : गीता प्रेस : गोरखपुर
[iv] अयोध्याकाण्ड, रामचरितमानस : गीता प्रेस : गोरखपुर
[v] अरण्यकाण्ड, रामचरितमानस : गीता प्रेस : गोरखपुर
[vi] सुंदरकाण्ड, रामचरितमानस : गीता प्रेस : गोरखपुर
(शोध ऋतु, त्रैमासिक पत्रिका, अप्रैल-जून, 2024 में प्रकाशित)
#पता : हिंदी विभाग, वी॰ जी॰ एम॰ पी॰ जी॰ कॉलेज, दिबियापुर, औरैया (उ॰प्र॰)206244
संपर्क : 6394667552
ईमेल : yogeshmishranaini 512@gmail.com
Comments
Post a Comment