मानस का हंस : समीक्षात्मक अध्ययन

  ‘मानस का हंस’ प्रसिद्ध लेखक अमृतलाल नागर का चर्चित उपन्यास है। यह उपन्यास भक्तिकालीन रामभक्त सुप्रसिद्ध कवि गोस्वामी तुलसीदास के जीवन पर आधारित है। अमृतलाल नागर ने ‘मानस का हंस’ को लिखकर जीवनीपरक उपन्यासों को पहचान दिलाने का कार्य किया। यह सब उनके गहरे अध्ययन, मनन और चिंतन के द्वारा संभव हो सका है। कहने का लखनवी अंदाज तथा किस्सागोई शैली पाठक को आदि से अंत तक बांधने का कार्य करती है। तथ्य के साथ ही कल्पनाधारित घटनाओं की रोचकता भी अप्रतिम है; हालांकि नागर जी ने ‘मोहिनी-प्रसंग’ की कल्पना करके कथानक को नया मोड़ दे दिया है, क्योंकि तुलसी की कोई भी प्रमाणिक जीवनी अभी भी उपलब्ध नहीं है। तथापि फिल्मांकन के उद्देश्य लिखे जा रहे इस उपन्यास में ऐसे रोचक प्रसंगों को उठाया जाना स्वाभाविक ही है।


नागर जी इस उपन्यास में अपनी प्रतिभा, अनुभूति सामर्थ्य और शिल्प वैशिष्ट्य से सभी को आकृष्ट कर लेते हैं। किंवदंतियों से बचते हुए नागर जी ने तुलसी-साहित्य में उपलब्ध संकेतों के आधार पर कथानक को आगे बढ़ाने का कार्य किया है। उन्होंने व्यापक फलक पर तुलसीदास के समय की सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक परिस्थितियों को रेखांकित किया है। मानस के हंस में काशी के सांस्कृतिक परिवेश की जीवंतता किसी भी पाठक को लेखक के सृजनात्मक प्रतिभा की कायल बना सकती है। इस उपन्यास में गोस्वामी तुलसीदास के जीवन से लेकर जीवनपर्यंत का जो वर्णन किया गया है, वह इतना व्यवस्थित, तर्कसंगत और जीवंत है कि ऐतिहासिक तथ्य न होते हुए भी यथार्थ सा लगता है। तथापि इस उपन्यास को साहित्य की दृष्टि से ही पढ़ा जाना चाहिए, न कि इतिहास की दृष्टि से।


  मानस का हंस के नायक तथा रामचरितमानस के रचनाकार हिंदी साहित्य शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास के व्यक्तित्व में वैषम्य मिलना स्वाभाविक है; क्योंकि अमृतलाल नागर ने संगठनकर्ता एवं रामलीला के आयोजक बाबा तुलसी को दृष्टि में रखकर कलम चलाई है। बावजूद इसके मानस का हंस में तुलसी के जीवन संघर्ष को व्यवस्थित एवं मनोवैज्ञानिक क्रम में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। तथ्यों में कल्पना के उचित पुट से रोचकता आ गई है, प्रमाणिकता भी असंदिग्ध है; क्योंकि उसे चमत्कारपूर्ण किवदंतियों के ऊपर अवलंबित न करके तर्क की भूमि पर खड़ा किया गया है।

©योगेश मिश्र , असिस्टेंट प्रोफेसर

हिंदी विभाग, वी जी एम 

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