‘अपने पैरों पर’ उपन्यास को पढ़ते हुए

शिक्षा का उद्देश्य जब से नौकरी पाना हो गया, तब से बाजार यह तय करना शुरू किया कि हमें क्या पढ़ना चाहिए? हम अपनी रुचि को दरकिनार करके रोजगारपरक शिक्षा एक के बाद एक लेने को उत्सुक रहते हैं; लेकिन क्या नौकरी के पीछे लंबी कतार में खड़े होने में हमारा दम नहीं घुटता? आज बाजार ने शिक्षा को कैसे प्रोडक्ट बनाकर बेचना शुरू किया है, इसका ऑपरेशन करता है उपन्यास- ‘अपने पैरों पर’।

आखिर कौन है जो अपने पैरों पर खड़ा नहीं होना चाहता? सभी के मां-बाप या हमारी स्वयं की भी इच्छा आखिर अपने पैरों पर खड़े होने की होती है। इसी चक्कर में पीठ पर भारी भरकम बोझ का बैग लेकर हम शुरू से ही भागना शुरू कर देते हैं। एक इंजीनियर के मस्तिष्क के उपजी यह कथा पूरे तकनीकी क्षेत्र की शिक्षा के पड़ावों की  बाकायदा जांच पड़ताल करती नजर आती है। पेशे से इंजीनियर भवतोष पांडेय अपने इस उपन्यास में समीक्षक का कार्य भी अपनी टिप्पणियां देकर करते चलते हैं। उन्होंने कथानक के बीच में अपनी राय को बराबर प्रकट किया है। इसके लिए वे भारतीय मध्यवर्ग का चयन करते हैं।  आज भारतीय समाज में सर्वाधिक यातना कोई खेल रहा है तो वह है मध्यवर्गीय समाज, जो जरूरत से ज्यादा इच्छा पाल लेता है, सामान्य से अधिक खर्च करता है; क्योंकि प्रेमचंद के शब्दों में कहें तो ‘इज्जत उसके लिए बहुत बड़ी चीज है’ जिसके चलते वह कोल्हू के बैल की तरह पीसने को तैयार रहता है। इसलिए यदि उसके बनाए हुए ग्राफ में यदि आंशिक बदलाव भी हो जाए तो वह खुद को संभाल नहीं पाता और उसका पैर लड़खड़ाना स्वाभाविक है।

‘अपने पैरों पर’ उपन्यास कई मामलों में रोचक प्रतीत होता है। इसे पढ़ते हुए ‘डार्क हाउस’ की याद आना स्वाभाविक है। इस उपन्यास का नायक एक मध्यवर्गीय परिवार से आता है, जिसकी शिक्षा के क्रमिक विकास यात्रा पर लेखक ने कलम चलाते हुए कोटा में मशरूम की तरह उपज रहे इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा के कोचिंग संस्थान के यथार्थ का पर्दाफाश किया है। क्योंकि लेखक स्वयं भी एक इंजीनियरिंग संस्थान से संबंध रखता है। अतः उस अनुभव के बदौलत कोटा में इंजीनियरिंग की तैयारी करने वाले छात्रों की एक रोचक गाथा इस उपन्यास में मिलती है। यदि आपने भी कमोबेश इस क्षेत्र में कभी हाथ-पैर चलाया होगा तो उपन्यास आपको कोटा की अच्छी खासी सैर कराता है। एक के बाद एक दृश्य आंखों के सामने से गुजरते जाते हैं। मनोरंजन के लिए भी लेखक ने पर्याप्त अवसर दिए हैं। इस क्रम में बिहारियों तथा पटना का उल्लेख करना वह नहीं भूलता। यद्यपि इस उपन्यास का नायक उत्तर प्रदेश का है, तथापि एक बार जरूरत पड़ने पर उसका परिचय ‘पटना का है’ कहकर बताया जाता है। लेखक ने बाजार और शिक्षा के अंतरंग संबंधों पर अपनी पैनी दृष्टि डालते हुए भी उपन्यास में नीरसता नहीं आने दिया, वह पाठकों का बराबर ख्याल रखता है और समय-समय पर हास्य का पुट देते रहता है।

इंजीनियरिंग के साथ ही लेखक ने मेडिकल प्रवेश परीक्षा की ओर भी उपन्यास में दृष्टि डाली है, उसके लिए वह रिया नामक पात्र को लाता है तथा पर अनुभव की कमी के चलते या अन्य कारणों वश वह उसे बीच में ड्रॉप आउट कर देता है जिससे वह संकेत मात्र बनकर रह जाता है। विषय पर केंद्रित होने के लिए भी लेखक ने ऐसा किया हो, बहुत संभव है। तथापि वह पात्र कुछ समय तक पाठकों के जेहन पर बनी रहती है। पाठक उसके कैरियर के बारे में सोचने के लिए मजबूर होता है।

प्रवेश के बाद आरंभ होता है-दाखिला। सरकारी संस्थानों में प्रवेश हेतु जैसे भीड़ छात्रों की होती है, ठीक उसके विपरीत निजी संस्थान छात्रों को फसाने के लिए अपने जाल फैला रखते हैं। सरकारी कालेज में वह फंसना चाहता है, जबकि निजी संस्थान उसे फसाना। अंततोगत्वा अपनी वह अपनी अकादमिक यात्रा शुरू करता है; किंतु इन सबके बीच लेखक जिस ओर पाठकों का ध्यान आकृष्ट करना चाहा है, वह महत्वपूर्ण है। नायक दक्ष के सहारे उसने पूरे भारतीय मध्यवर्ग की समस्या को दर्शाया है, जिसे बराबर चिंता रहती है कि क्या मैं अपने पैरों पर खड़ा हो पाऊंगा? शुरुआत में जो आदमी आत्मविश्वास होता है, वह समय के साथ कम होता जाता है। अब वह शौक के लिए नहीं बल्कि जरूरत के हिसाब से कोई भी नौकरी करने को तैयार हो जाता है, लेकिन उसकी विशेषता है- अदम्य जिजीविषा। पता नहीं क्यों जब जिजीविषा शब्द आता है मुझे ‘कुटज’ की याद आती है। विषय परिस्थितियों में धक्के-मुक्के खाते रोज की भागदौड़ करके वह अभी भी अपने सपनों के पीछे शहरी जीवन में अपना स्वास्थ्य खराब करके, गुड़गांव से दिल्ली, अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए भागता रहता है।

इंजीनियरिंग शिक्षा प्राप्त युवा का एक पैर ठीक से जमता नहीं कि दूसरा उखड़ जाता है। इस प्रकार यह उपन्यास अपने पैरों पर खड़े होने की त्रासद गाथा सा बन गया है। जैसे तैसे दक्ष की गाड़ी पटरी पर आ तो जाती है लेकिन चलने के समय उसका पहिया उखाड़ने का कार्य करती है उसकी पत्नी, जो अपनी जिद के कारण उसे छोड़कर चली जाती है। वहां पर पाठक थोड़ा सा लेखक से असहमत सा हो जाता है, उसे इसमें यथार्थ कम, नाटकीयता अधिक दिखाई पड़ती है; किंतु अत्याधुनिक शहरी परिवेश तथा युवाओं के उतावलापन के चलते एकदम से इसे नकारा नहीं जा सकता। वर्ग संघर्ष भी उनके अलगाव में अपनी भूमिका अदा करता है, जिससे उसके रहन-सहन तथा विचारों में बदलाव के चलते टकराव की स्थिति उत्पन्न होती है। इस बात को लेखक ने बखूबी चित्रित किया है।

इन सबके बीच इस मध्यवर्गीय नायक के माता-पिता पर भी दृष्टि डालनी आवश्यक है जिस पर लेखक ने काफी शिद्दत से कार्य किया है। मध्यवर्गीय परिवार अपने पुत्र को पैरों पर खड़ा करने के लिए कोई कोर कसर बाकी नहीं रखता, जहां से जैसे भी संभव हो सकता है, उसकी शिक्षा के लिए ‘एड़ी चोटी का जोर’ लगा देता है। इसीलिए वह अपने बच्चे की आंशिक असफलता से भी विचलित होने लगता है, लेकिन होता वह समन्वयवादी ही, वह कभी ‘ना’ कहना नहीं जानता, जब तक उसके शरीर में प्राण शेष हों। इसी बीच उपन्यास का एक वाक्य याद आ रहा  है कि ‘बचपन में मेले में बांसुरी न दिला पाने वाला पिता बड़ी आसानी से इंजीनियरिंग कालेज में प्रवेश के बाद अपने बच्चे को लैपटॉप दिला देता है। वह ऐसी कोई भी कमी नहीं रखना चाहता है जिससे कि उसके पैर कमजोर हों।

इस सबके बीच उपन्यास की भाषा पर भी दृष्टिपात करना आवश्यक हो जाता है। उपन्यास की भाषा प्रासंगिक है, न तो गालियों से परहेज किया गया है, न लोक में प्रचलित कहावतों से। अंग्रेजी के साथ ही अवसर आने पर देशज भाषा को भी नहीं छोड़ता। इस सबकी बदौलत परिवेश जीवन सा बना रहता है और रोचकता भी। इसके साथ ही आधुनिक समय में विकसित हो रहे नए शब्दों का प्रयोग भी लेखक ने प्रयोग किया है, किंतु अर्थ ग्रहण कर रहे हैं इन नए शब्दों की वह व्याख्या करता गया है, जिससे पाठकों को कहीं भी कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ता है; किंतु पड़ ही जाए तो आज के गूगल युग में दुनिया मुट्ठी में है। अतः कोई खास दिक्कत नहीं।

‘अपने पैरों पर’ उपन्यास को महज एक उपन्यास की दृष्टि से नहीं पढ़ना चाहिए, बल्कि साहित्य की समझ रखने वाले युवा इंजीनियर भवतोष पांडेय के इस उपन्यास में शिक्षा को बाजारीकरण को लेकर जो बातें कही गई हैं, जो मुद्दे उठाए गए हैं या कहें कि जो चिंता प्रकट की गई है, उनसे हमें रूबरू होने की जरूरत है। हम सभी आज नहीं तो कल किसी न किसी के कैरियर निर्धारण में अपनी सलाह देते रहते हैं। ऐसे में उपन्यास शिक्षा के बाजारीकरण पर एक जोरदार बहस करता नजर आता है, उससे रूबरू होने के लिए हमें पढ़ना इसे चाहिए, जिससे शायद आपके लड़खड़ाते पैरों को कुछ मजबूती मिल सके या किसी को अपने पैरों पर खड़ा करने में आप अपनी अहम भूमिका अदा कर सकें।

@योगेश मिश्र, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर

विवेकानंद ग्रामोद्योग महाविद्यालय

दिबियापुर, औरैया, (उ.प्र.)

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