स्वतंत्रता पूर्व शिक्षा- व्यवस्था और निराला के उपन्यास
योगेश कुमार मिश्र, शोधार्थी,
हिंदी एवं तुलनात्मक साहित्य विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा महाराष्ट्र- 442001
प्रकाशित शोध पत्र
दुनिया को बदलने का सबसे शक्तिशाली हथियार शिक्षा है- यह मानना है महान विचारक, नोबेल पुरस्कार विजेता नेल्सन मंडेला का। शिक्षा वह आधार है, जिस पर किसी देश तथा उसके प्रत्येक नागरिक का विकास निर्भर करता है। 2 फरवरी,1835 को लार्ड मैकाले ने अपना महत्वपूर्ण ‘स्मरण-पत्र’ लिखा। उसने भारतीय साहित्य के संदर्भ में लिखा कि- “यूरोप के एक अच्छे पुस्तकालय की एक आलमारी का एक कक्ष, भारत और अरब के समस्त साहित्य से अधिक मूल्यवान है।” इस वाक्य में मैकाले का भारतीय शिक्षा एवं साहित्य के प्रति तिरस्कार भाव तथा यूरोपीय साहित्य को श्रेष्ठ साबित करने का भाव निहित है। लेकिन यह वाक्य तत्कालीन भारतीय शिक्षा के यथार्थ को भी समझने में सहायक है। भारतीय शिक्षा को गर्त में डूबोने के लिए विदेशी शासकों ने भी कम योग नहीं दिया। जहाँ देशी राज्यों के समाप्त होने से उन राज्यों पर आश्रित शिक्षण-संस्थानों को आर्थिक सहायता मिलना बंद हो गई, वहीं अंग्रेजों ने अपनी भाषा की शिक्षा को प्रोत्साहित किया और देशी शिक्षा को संरक्षण नहीं दिया, जिससे वह अपनी मौत मरने के लिए बाध्य हो गई। 6 मार्च,1835 को मैकाले के द्वारा भारतीय शिक्षा नीति का निर्माण किया गया। इसके संदर्भ में परांजपे लिखते हैं कि- “घोषणा पत्र का उद्देश्य ऐसी शिक्षा देना नहीं था, जो नेतृत्व सिखाएं, भारत का औद्योगिक विकास करें, मातृभूमि की रक्षा करना सिखाए अर्थात जो किसी स्वतंत्र राष्ट्र के निवासियों के लिए अपेक्षित हो। मैकाले ने केवल उच्च-वर्ग को अंग्रेजी माध्यम से शिक्षित करने का प्रयत्न किया। उसका मानना था कि अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोग दुभाषिया श्रेणी के रूप में कार्य करेंगे। अंग्रेज शासकों ने इस मत का अक्षरश: पालन किया कि-“यदि किसी देश को गुलाम बनाए रखना है, तो उसके साहित्य और संस्कृति का विनाश कर देना चाहिए।” यही कारण है कि अंग्रेजों ने प्रशिक्षण विद्यालय खोले और छात्रवृत्तियाँ देकर योग्य व्यक्तियों को उनमें अध्ययन करने के लिए प्रोत्साहित किया। इस प्रकार से अंग्रेजों ने भारतीय शिक्षा को दोनों ओर से नुकसान पहुंचाया। एक ओर जहां उन्होंने देशी शिक्षण-संस्थानों को मिलने वाली आर्थिक सहायता से दूर किया, तो वहीं दूसरी ओर योग्यताओं को प्रलोभन के सहारे आकर्षित किया।
मैकाले के बाद चार्ल्स वुड ने 1854 में भारत की भावी शिक्षा की दृष्टि से एक वृहत-योजना बनायी, जिसे भारतीय शिक्षा का ‘मैग्ना-कार्टा’ कहा गया। इन योजनाओं का उद्देश्य भारतीय मानस में अंग्रेजी संस्कार पैदा करना था। उनका मानना था कि इस दीक्षा से दीक्षित भारतीयों को अंग्रेजी शासन से आपत्ति न होगी। यही कारण है कि उन्नतशील भारतीय तत्व भी अंग्रेजी शिक्षा के समर्थक बने। बनारस में संस्कृत कालेज स्थापित करने के सरकार के प्रयत्नों की कड़ी प्रतिक्रिया राजा राममोहन राय ने की। उन्होंने कहा कि- “यदि सरकार की यही नीति है कि देश को अंधकार में रखा जाए तो संस्कृत विद्या-पद्धति से अति उत्तम लाभ होगा।” अब भारतीयों को भी भारतीय शिक्षा अरुचिकर सी लगने लगी। इसके दो कारण समझे जा सकते हैं। एक तो यह कि अंग्रेजी शिक्षा स्वयं को उपयोगी साबित करने में कारगर हुई दूसरे यह कि भारतीय शिक्षा का स्तर बहुत नीचे जा चुका था और वह अनुपयोगी जान पड़ने लगी थी। हंटर शिक्षा आयोग सन 1882 को केवल प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा शिक्षण तक ही सीमित रखा गया। इस प्रकार से अंग्रेजों की स्वार्थ परायणता, धनलोलुपता एवं व्यापारिक एकाधिकार, राजनीतिक स्वामित्व को चिरस्थायी बनाए रखने की अभिलाषा ने आर्थिक संकटों से आवृत देशी-शिक्षा का गला घोट दिया। परिणाम स्वरूप वह ‘सैकत-शैया’ पर पड़े रहने के लिए बाध्य हुई। बहुत संभव है कि अंग्रेजी शिक्षा पद्धति से दीक्षित भारतीयों ने भी उसको इस स्थिति तक पहुंचाने में अपना योगदान दिया होगा। इसके बाद आते हैं, कर्जन, जो कि काटने की कला में निपुण हैं। बंगाल विभाजन का असफल प्रयासइन्होंने ही किया था। अपनी संकीर्णताओ के बावजूद प्रशासनिक सुधार के मद्देनजर कर्ज़न ने भारतीय शिक्षा को सुधारने का प्रयत्न किया। “परंतु उसके उद्देश्य राजनैतिक थे, और केवल आंशिक रूप से शैक्षिक।” 21 फरवरी,1913 के प्रस्ताव से सरकार ने अनिवार्य शिक्षा के सिद्धांत को तो स्वीकार नहीं किया, अपितु निरक्षरता समाप्त करने की नीति को अवश्य स्वीकार किया। हार्टोग समिति, 1929 ने प्राथमिक शिक्षा के राष्ट्रीय महत्व पर बल दिया। इधर “औद्योगिक क्रांति के कारण जनता विज्ञान के नवीन विषयों की ओर आकर्षित होने लगी थी। अंग्रेजी शिक्षण संस्थानों ने अपने पाठ्यक्रम में नवीन विषयों को स्थान दिया।” लेकिन देशी शिक्षण संस्थानों में औद्योगिक क्रांति के साथ कोई परिवर्तन नहीं दिखाई पड़ता है। आता भी कैसे? जहां अधिकांश शिक्षक अपना जीवन निर्वाह विद्यार्थियों से प्राप्त शुल्क और अन्य व्यक्तियों से भोजन तथा उपहार प्राप्त करते हो। उन संस्थानों में परिवर्तन की लहर का प्रभाव परिलक्षित न हो, तो कोई बड़ा प्रश्न नहीं। किसी तरह से इन अदम्य जिजीविषा वाले शिक्षक और छात्रों ने भारतीय शिक्षा को आगे बढ़ाने का प्रयास किया। पाठ्यक्रम के बदलाव की अपेक्षा इनसे नहीं की जा सकती हैं।
इस प्रकार सरकार ने जहां देशी शिक्षा के प्रति ध्यान भी नहीं दिया, वही अंग्रेजी शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिए हर संभव प्रयास किए। सरकार की उदासीनता का स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि देशी-शिक्षा पतन की ओर अग्रसर होती गई, जबकि “देशी शिक्षा-व्यवस्था में राष्ट्रीय शिक्षा-पद्धति का स्थान ग्रहण करने की क्षमता थी।” यह तो भारतीय शिक्षा के पतन की गाथा थी, किंतु यह भी देखना आवश्यक है कि अंग्रेजी शिक्षा पद्धति जिसे गुलाब की तरह सींचा जा रहा था, वह किस रूप में कारगर साबित हुई। अंग्रेजों की पाश्चात्य शिक्षा की नीति का लक्ष्य केवल अपने कार्यों के अनुरूप लोगों को शिक्षित करना था, परंतु समय-समय पर जारीशिक्षा नीतियों से निश्चित रूप से साक्षरों की संख्या में वृद्धि हुई। अंग्रेजों द्वारा स्थापित शिक्षा पद्धति से एक ओर हमे संकीर्णताओ और रूढ़ियो को तोड़ने में सहायता मिली, तो वहीं दूसरी ओर स्वतंत्र एवं स्वाधीन भारत की आकांक्षाओं के अनुरूप बनने में सहायता मिली। यह अलग प्रश्न है कि इसका लाभ एक वर्ग विशेष तक सीमित रह रहा। “अतीत के सांस्कृतिक गौरव को वर्तमान से जोड़ने की दृष्टि से भी इस अंग्रेजी शिक्षा पद्धति का भारतीयों के लिए नितांत लाभ रहा है।”
निष्कर्षतः अंग्रेजों की शिक्षा नीतियों से हमें स्वदेश-प्रेम, राष्ट्रीय एकता एवं राष्ट्रीय लोक-आकांक्षाओं के महत्व को समझने की एक दृष्टि मिली। भारतीय शिक्षा को गर्त से निकालने के लिए महापुरुषों तथा समाज सुधारकों ने प्रयत्न किये तथा उसके प्रचार-प्रसार के लिए अपना योगदान दिया। तत्कालीन साहित्यकारों ने भी अपनी लेखनी से इस स्वर को सशक्त बनाने का कार्य किया, जिनसाहित्यकारों ने शिक्षा की महत्ता को अपने साहित्य में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तरीके से उठाया, उनमें से एक नाम है- सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’।
निराला का संपूर्ण जीवन (1896-1961) राजनैतिक तथा सामाजिक व्यवस्था की दृष्टि से अत्यंत संघर्ष तथा दबाव का काल रहा है। स्वाधीनता आन्दोलन चलाए जा रहे थे, सामाजिक संरचना में भी उतार-चढ़ाव की स्थिति बनी हुई थी । गांधीजी, अफ्रीका से आने के बाद भारतीय सामाजिक व्यवस्था को कई स्तरों पर सुधारने का प्रयास करते हैं। वे छुआछूत की भावना को नकारते हैं। यही कारण है कि वे अपने पत्र का नाम रखते हैं- हरिजन।
निराला ने भी बंधनों का प्रत्येक स्तर पर प्रतिकार किया, चाहे वह कविता में छंदों का बंधन हो या फिर सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राजनैतिक बंधन। निराला ऐसे समस्त बंधनों को उखाड़ फेंकने के लिए तत्पर दिखते हैं, जो मानवता के खिलाफ हैं। निराला सभी जगह मुक्ति के संदेश को उजागर करने वाले मुक्ति पुरुष हैं। निराला के उपन्यास अज्ञानता के बंधन को तोड़ने के लिए प्रयासरत दिखते हैं। इसके लिए वे शिक्षा को आवश्यक मानते हैं। उनका मानना है कि शिक्षा ही वह हथियार है, जो किसानों, दलितों तथा स्त्रियों को अज्ञानता के बंधन से मुक्त कर सकता है। शिक्षा से उनमें आत्मविश्वास पैदा होगा, उन्हें अपने अधिकारों का बोध होगा और वे शोषण करने वालों का प्रतिकार कर सकेंगे। यहाँ ध्यान देने की जरूरत है कि यह ऐसा वर्ग है जिसे अब तक न अँग्रेजी-शिक्षा व्यवस्था और न ही देशी-शिक्षा का लाभ मिल सका था। स्वतंत्रता पूर्व की शिक्षा व्यवस्थानिचले तबके को स्पर्श भी न कर सकी थी। यही कारण है कि निराला अपने उपन्यासों में किसानों, दलितों तथा स्त्रियों की शिक्षा को लेकर तत्पर दिखते हैं। उनके उपन्यास के प्रमुख पात्र तथा नायक-नायिका, सभी भलीभांति शिक्षित हैं। उनकी शिक्षा का उल्लेख किया गया है। ‘अप्सरा’ उपन्यास की नायिका-कनक की शिक्षा का उचित प्रबंध किया गया है। अंग्रेजी तथा हिंदी के अलग-अलग योग्य अध्यापक नियुक्त किए गए हैं। यहां गौर करने लायक है कि वेश्या-पुत्री होते हुए भी, उसे पहले अंग्रेजी तथा हिंदी की शिक्षा दी जाती है। उसके बाद जातीय शिक्षा। यहां जातीय शिक्षा से आशय है- संगीत और अन्य प्रकार की शिक्षा जो वेश्याओं के लिए अपेक्षित हो। निराला के प्रमुख औपन्यासिक पात्रों की ओर ध्यान केंद्रित करने पर यह दिखेगा कि वे शिक्षा दान में कोई कंजूसी नहीं करते हैं। इस दृष्टि से अलका के विजय, अजीत तथा नायिका-अलका को देखें या फिर ‘अप्सरा’ के चंदन को। ‘कुल्लीभाट’ के कुल्ली और ‘काले कारनामे’ के मनोहर को भी देखा जा सकता है, जो अछूतों के लिए पाठशाला खोलते हैं। दूसरी बात यह कि कुछ ऐसे भी पात्र हैं, जो स्वयं तो शिक्षक के रूप में कार्य नहीं करते,लेकिन पाठशालाओ तथा शिक्षा के लिए लोगों की सहायता करने में आगे रहते हैं। ‘अप्सरा’ की कनक, चंदन के यह कहने पर कि- “मुझे एक हजार रूपये दो। मैंने हरदोई जिले में, देहात में, एक राष्ट्रीय विद्यालय खोला है,उसकी मदद के लिए।” सहर्ष पैसे देती है। ‘निरूपमा’ में भी एक प्रसंग आता है। राजकुमार के छोटे भाई रामचंद्र के यह बतलाने पर कि उसकी पढ़ाई का खर्च पंद्रह रूपये है। निरूपमा कहती है कि- “आपको बीस रूपये महीने के पहले सप्ताह में मिल जाया करेंगे। फिर बढ़ा दिया जायेगा, ज्यों-ज्यों आप बढ़ते जायेंगे।” जमींदारों की ऐसी उदारता के पक्षधर हैं- निराला। ‘अलका’ के स्नेहशंकर, जो कि निराला के ही प्रतिरूप दिखते हैं, अपनी किताबों से मिलने वाली रॉयल्टी को किसानों की सहायता के लिए खर्च करते हैं। उनका मानना है कि- “जो लोग वास्तव में क्षेत्र में उतरकर देश के लिए कार्य करते हैं, वे यदि किसानों की शिक्षा के लिए सोचें, हर जिले के आदमी अपनी ही जिले में जितने हो, उतने केंद्र कर अर्थात उतने गांव में, इन किसानों को केवल प्रारंभिक शिक्षा भी दे दें, तो उनके जेलवास से ज्यादा उपकार हो।” यदि इन्हे साक्षर करने में योग दिया जाए, तो यह सबसे बड़ा समाज का उपकार होगा। कारण यह कि निरक्षरता ही इनके जीवन में दुख का मूल है। इन किसानों तथा दलितों की निरक्षरता का लाभ जमीदार तथा सेठ-साहूकार किस तरह से उठाते हैं, इसका उल्लेख ‘अलका’ में आया है कि- गांव में डिप्टी साहब आने वाले हैं। बुधुवा कहीं अपने शरीर पर पड़ी मार के निशान को उन्हे दिखा न दे, जिसके गुनाहगार जमीदार साहब हैं। इसलिए जमीदार साहब उसे चिट्ठी देते हुए, यह कहते हैं कि- “यह चिट्ठी लल्ला के मामा को दे आना, इसमें दवा देने का हाल लिखा है, वह पढ़ लेंगे।” जबकि वास्तविकता यह है कि इस बहाने वह बुधुवा को गांव से बाहर भेजना चाहते हैं और उस चिट्ठी में लिखा था कि- “इसे शाम तक खिला-पिलाकर बहला रखना, छोड़ना हरगिज़ नहीं।” बुधुआ, जमीदार के भय तथा निरक्षरता के कारण अपने खिलाफ चली जाने वाली चाल की चिट्ठी स्वयं लेकर जाने को तत्पर है। इस तरह से जमीदार उसकी निरक्षरता का फायदा उठाना चाहता है।
निराला ऐसे उपन्यासकार के रूप में सामने आते हैं, जिनके पात्र जब गांव छोड़कर शहर जाते हैं, तो उनका उद्देश्य व्यवसाय नहीं, शिक्षा होता है। इतना ही नहीं, वे अपने पात्रों की अधूरी शिक्षा को फिर से आगे बढ़ाते हैं। वे शहर से शिक्षित होकर गाँव लौटते हैं, तो लोगों को साक्षर बनाने का प्रयास करते हैं। उनके द्वारा साक्षरता अभियान के संदर्भ में दिए गए विचार आज भी प्रासंगिक हैं, ‘अलका’ का विजय कहता है कि- “जो भीख भगवान के नाम पर भिक्षुकों को दी जाती है, प्रतिदिन यदि उतना अन्न निकालकर एक हंडी में रख लिया जाए और महीने के अंत में गांव-भर का अन्न एकत्र कर बेंचा जाए, तो उसी अर्थ से एक शिक्षक रखकर वे अपने बालकों को प्रारंभिक शिक्षा दे सकते हैं।” लेखक का चिंतन यहां पर सराहनीय है। यह बीसवीं सदी के चौथे दशक में लिखा गया उपन्यास है, जिसके चार वर्ष बाद, सन 1937 में गांधी जी ने अपने पत्र- ‘द हरिजन’ में लेखों की एक श्रृंखला प्रकाशित की और एक शिक्षा योजना का प्रस्ताव किया। निराला के द्वारा सुझाया गया तर्क आज भी प्रासंगिक है। सरकार की ‘सर्व शिक्षा अभियान’ की अवधारणा के बावजूद भी, ऐसे तबके मिलेंगे, जहां तक सरकारी शिक्षा की पहुंच नहीं है। उन जगहों पर ऐसे चिंतन की जरूरत है। निराला का मानना है कि “जब तक रियाया अपने अर्थ को पूरी मात्रा में नहीं समझती, तब तक दूसरे समझदार का जुआ उसके कंधे पर रखा रहेगा।” इसलिए वे किसानों की शिक्षा पर जोर देते हैं। उपन्यासकार का चिंतन और आगे तक साक्षरता की दिशा में उल्लेखनीय है।विजय ने स्वयं तो गांव से बाहर जो भीख मुफ्त जाती थी, उसके बदले उन कृषक-बालकों को शिक्षा देने का उपक्रम बनाया है। साथ ही आस-“पास के पाँच-छह गाँवो में जहां मदरसे दूर थे और किसान बालकों को पढ़ने में असुविधा थी, उसी तरीके पर साधारण शिक्षा देने वाला, उसी गांव का मामूली पढ़ा-लिखा, कलम की नौकरी करने में अयोग्य, गृहों में हताश रहने वाला एक-एक युवक नियुक्त कर दिया।” कथाकार एक ओर जहां गांव की निरक्षरता को दूर करने के लिए प्रयासरत है, वहीं दूसरी ओर बेरोजगार शिक्षित युवकों के बारे में भी सोच रहा है। लोगों की शिक्षा के लिए प्रयासरत, इसी विजय के खिलाफ, जब ये किसान, गांव के जमीदार तथा साहूकारों के बहकावे में आ करके गलत बयान देते हैं, तो विजय की आंखों में आंसू आ जाता है। अपनी सजा को सुनकर नहीं, बल्कि इन किसानों की दशा को सोचकर। वह सोचता है कि अज्ञानता के कारण इनका आत्मविश्वास कितना कमजोर है। जेल के भय से ये किसान जमीदार के कहने पर कुछ भी करने को तैयार हैं। वे नही जानते कि जमीदार लोग नहीं चाहते हैं कि किसान शिक्षित हो। इसीलिए किसानों का यह संगठित शिक्षा क्रम देखकर वे विजय के खिलाफ किसानों से गवाही दिलवा देते हैं।
निराला और उनके पात्रों की जिजीविषा अदम्य है। वे हार मानने वाले नहीं। जेल से छूटकर विजय, प्रभाकर नाम से शहर में कुलियों को संगठित कर, उनकी शिक्षा के लिए कार्य करता है। वह अलका से अपेक्षा करता है कि- “आप जैसी सहृदया विदुषियों को भारत की अशिक्षा से ठुकराई हुई समाज के उपेक्षित स्त्रियां करुणा-कंठ से प्रतिक्षण अशब्द आमंत्रण दे रही हैं।” प्रभाकर कुलियों की स्त्रियों के लिए एक पाठशाला खोलना चाहता है, जिसमें पढ़ाने के लिए वह अलका से अनुरोध करता है- “आपकी मुझे जरूरत है। मैं यहां की कुलियों की स्त्रियों के लिए एक नैश पाठशाला उनकी खोलियों के पास खोलना चाहता हूं। आप केवल दो घंटे शाम 7-9 बजे तक दीजिए।” पाठशाला में कुलियों की स्त्रियों को शिक्षा का प्रावधान हो गया। अलका रोज पढ़ाने जाती है। इस प्रकार से निराला शिक्षा की महत्ता को समझ रहे थे। गांव की अशिक्षा को दूर करने के लिए अपने विचारों को रखते हैं। उनकी इन्हीं बारीकियों को देखकर मधुरेश कहते हैं कि- “सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का महत्व इस दृष्टि से है कि उनके उपन्यासों में सामाजिक परिवर्तन की कामना सर्वाधिक प्रखर रूप में प्रकट हुई है।---- ग्रामीण यथार्थ केचित्रण में निराला यत्र-तत्र प्रेमचंद से भी आगे बैढ़े दिखाई पड़ते हैं।” ‘कुल्लीभाट’ में निराला ने आछूतों की शिक्षा का उल्लेख किया है। कुल्ली पाठशाला खोलते हैं। वे, निराला से कहते हैं कि-“अछूत पाठशाला खोली है। तीस-चालीस लड़के आते हैं। धोबी, भंगी, चमार, डोम और पासियों के। पढ़ाता हूं।” लेखक ने जिन जातियों का उल्लेख किया है, सभी निचली श्रेणी की हैं। इनकी दशा देखकर कथाकार की कलम करुणा से व्याप्त हो गई है। वह लिखता है कि- “बिलकुल प्राचीन तपोवन का दृश्य। इनके अभिभावक भी आए हैं। दोनों में फल-फूले लिए हुए, मुझे भेंट करने के लिए। इनकी ओर कभी किसी ने नहीं देखा। ये पुश्त-दर-पुश्त से सम्मान देकर संसार से नतमस्तक ही चले गए हैं।संसार की सभ्यता के इतिहास में इंका इतिहास नहीं।---फिर भी ये हैं और हैं।” निराला इस बात को गहराई से समझ रहे थे कि शिक्षा के अभाव में इनका जीवन कितना दुरूह हो गया है। इनका कितना शोषण हुआ है। इतिहास में भी इनका कम योग नहीं, तथापि इनके नामो का उल्लेख कहीं भी नहीं। यथार्थ को रेखांकित करते हुए निराला लिखता हैं कि कुल्ली की पाठशाला को सरकारी सहायता देने से अधिकारी इसलिए इंकार करते हैं, क्योंकि वह अछूतों को पढ़ाता है। निराला ने यहां उच्च-वर्ग के अधिकारियों की मानसिकता का सटीक लेखांकन किया है, जो अछूतों को शिक्षित होते हुए नहीं देखना चाहते हैं। ‘काले करनामे’ उपन्यास में निराला, मनोहर के रूप में एक प्रतिरोधी शक्ति बन कर आते हैं, जो न केवल गाँव के शोषितों एवं उत्पीड़ितों की सहायता करता है, बल्कि शूद्रों के लिए पाठशाला भी चलाता है। उन्हे संस्कृत की शिक्षा देता है।
निराला का शिक्षा संबंधी दृष्टिकोण प्राथमिक शिक्षा तक ही सीमित नही है, अपितु वह अपने लेखन से उच्च शिक्षा तक पहुँच बनाता है। उच्च शिक्षा प्रणाली का उल्लेख ‘निरुपमा’ में मिलता है। इस उपन्यास के प्रारम्भ में ही विश्वविद्यालयों में हो रही नियुक्ति संबंधी धांधलियों का पर्दाफाश किया है। लंदन से डी.लिट. की उपाधि लेकर लौटा हुआ कुमार योग्य होने पर भी अस्वीकृत कर दिया जाता है। अस्वीकृति के कारणों की ओर इशारा करते हुए निराला लिखते हैं कि – “चूंकि किसी चांसलर, वाइस चांसलर, प्रिन्सिपल, प्रोफेसर या कलक्टर से उसकी रिश्ते की गिरह नही लगी, इसलिए किसी को उसकी विद्वता का अस्तित्व नही मालूम दिया।” वर्तमान समय में विश्वविद्यालयों में चयन के पैमाने कुछ इसी प्रकार के हैं, जहाँ परिवारवाद, गुरु -शिष्यवाद की आवधारणा विकसित हो रही है। ऐसे समय में निराला का चिंतन प्रासंगिक हो जाता है। कुमार की अस्वीकृति से निराला की प्रतिरोध शक्ति जागृत हो जाती है, विरोधस्वरूप वे उसे ले जाकर बैठाते हैं – चौराहे पर । डी.लिट. उपाधि धारक, बूट पालिश करता हुआ – एक ब्राह्मण कुमार। बीसवीं सदी के चौथे दशक में लिखा यह उपन्यास आधुनिक उच्च शिक्षा प्रणाली पर व्यंग करता हुआ अपनी प्रासंगिकता को दर्शाता है। वर्तमान में जब पी-एच.डी.धारकों की संख्या लगातार बढ़ रही है तथा रोजगार की संभावना कोशों दूर भी नही दिखाई दे रही है, तो बहुत संभव है कि इन उपाधि धारकों को भी, कुमार के जैसे कार्यों को करने के लिए मजबूर होना पड़े। जिस विश्वविद्यालय से पी-एच.डी. की डिग्री लेकर निकले हैं, उसी में उन्हे क्लर्क या गार्ड के रूप में कार्य करना पड़े। एक साहित्यकार अपने संमय से कितना आगे की सोचता है, निराला की दूरदर्शिता से इसको समझ जा सकता है।
कभी विवेकानंद ने कहा था कि- “जब तक लाखों लोग भूख तथा अज्ञान से ग्रस्त हैं, मैं हर उस व्यक्ति को देशद्रोही कहूँगा , जो उसके खर्च पर शिक्षा पाकर भी उन पर कोई ध्यान नही देता।” इस कथन के अनुसार निराला अपने पात्रों तथा स्वयं अपने को भी देशद्रोही कहलाने से बचा लेते हैं। ‘चतुरी चमार’ मे निराला चतुरी के लड़के अर्जुन को पढ़ाते हैं, बदले में केवल बाजार से गोश्त लाने की शर्त पर। इसके अतिरिक्त कोई अन्य कार्य या पैसा नही लेते, जैसे कि उनके औपन्यासिक पात्र। निराला के उपन्यास सर्वाधिक महत्वपूर्ण इस दृष्ठि से हैं कि सर्वप्रथम शिक्षा कि महत्ता को वे गंभीरतापूर्वक उठाते हैं। उनके उपन्यासों के संदर्भ में अब तक के आलोचकों की दृष्टि सही नही कही जा सकती है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि कुछ आलोचकों ने निराला के उपन्यासों को गंभीरतापूर्वक इसलिए नही लिया क्योंकि उनका मानना है कि ये उपन्यास अग्रिम भुगतान कि उपज है अर्थात प्रकाशकों से लिए गए पैसों के बदले वे उन्हे उपन्यास लिख कर देते हैं। उपन्यास का सृजन किस परिस्थिति में किया गया है, इससे अधिक महत्वपूर्ण यह है कि उनमे चित्रित विचार कितने प्रासंगिक है। मैं मानता हूँ कि निराला के उपन्यास भाषा – शैली या घटना क्रम के आधार पर ऊंचाई तक नही पहुँच पाते हैं, जितने की अन्य उपन्यास। लेकिन यथार्थ चित्रण के मामले में, विशेषकर शिक्षा संबंधी दृष्टिकोण के मामले में निराला तत्कालीन उपन्यासकारों में सबसे आगे दिखाई पड़ते हैं।
#पता – 45, गोरख पाण्डेय छात्रावास ,
संपर्क-6394667552
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