राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और राष्ट्रभाषा हिंदी (विजय दर्पण टाइम्स मेरठ 31 जनवरी 2020) Youtube video https://youtu.be/3vSVIgjYx9k?si=PN9sS6Ox3XS5BFCk देश दुनिया में जिस प्रकार से महात्मा गांधी का 150 वां जयंती वर्ष मनाया गया, इससे स्पष्ट रूप से गांधी की महत्ता प्रमाणित होती है। साथ ही यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि दुनिया जैसे-जैसे विनाश के कगार पर पहुँचती जाएगी, वैसे-वैसे गांधी की प्रासंगिकता बढ़ती जाएगी। एक ऐसा व्यक्तित्व जिसने पूरी दुनिया को अपनी शक्ति का एहसास दिलाया, सत्य और अहिंसा के द्वारा अनेक असाधारण कार्यों को कर दिखाया, पूरी दुनिया में चर्चित हुआ एवं भारत में राष्ट्रपिता के नाम से अभिहित हुआ, उसकी हार्दिक इच्छा थी कि ‘हिंदी’ भारत की राष्ट्रभाषा बने। गांधी का हिंदी प्रेम देखना है तो आपको 20 अप्रैल 1935 को इंदौर में हिंदी साहित्य सम्मेलन के 24वें अधिवेशन पर दृष्टि डालनी होगी, जिसमें सभापति के पद से गांधी ने यह जाहिर कर दिया था कि राष्ट्रभाषा बने या न बने हिंदी को मैं छोड़ नहीं सकता। यद्यपि इसी वक्तव्य में उन्होंने अपने हिंदी ज्ञान की ओर भी संकेत करते हुए
छायावादी कथा-साहित्य (योगेश कुमार मिश्र, शोधार्थी , हिंदी एवं तुलनात्मक साहित्य विभाग महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा महाराष्ट्र 442001) खड़ी बोली हिंदी के विकास के चरमोत्कर्ष के रूप में छायावाद अपनी पहचान बनाता है, यद्यपि छायावादी साहित्य को स्थापित होने में समय लगा| उसके सभी साहित्यकारों को अपने साहित्य को स्थापित करने के लिए संघर्ष करना पड़ा| अपने सृजन का स्वयं स्पष्टीकरण देना पड़ा, किंतु आज छायावादी साहित्य की महत्ता को सभी स्वीकार चुके हैं| छायावादी साहित्य का खड़ीबोली के विकास में अहम योग है| उसने अनेक संभावनाओं को जन्म दिया, जो हिंदी साहित्य को ऊंचाइयों तक पहुंचाने में सफल रहे| यदि हम छायावादी साहित्य को केवल काव्य तक ही सीमित न समझे, तो अन्य विधाओं में भी छायावादी साहित्य अपनी पहचान को कायम करता है| छायावाद के सभी बड़े रचनाकारों ने कविता की साथ कहानी, उपन्यास, निबंध, रेखाचित्र, संस्मरण, नाटक इत्यादि अनेक विधाओं को अपने सृजन से समृद्ध किया| जयशंकर प्रसाद ने कविता के साथ-साथ नाटकों और कथा साहित्य में भी समान रूप से ख्याति अर्जित की|
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