राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और राष्ट्रभाषा हिंदी


राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और राष्ट्रभाषा हिंदी


(विजय दर्पण टाइम्स मेरठ 31 जनवरी 2020)

देश दुनिया में जिस प्रकार से महात्मा गांधी का 150 वां जयंती वर्ष मनाया गया, इससे स्पष्ट रूप से गांधी की महत्ता प्रमाणित होती है। साथ ही यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि दुनिया जैसे-जैसे विनाश के कगार पर पहुँचती जाएगी, वैसे-वैसे गांधी की प्रासंगिकता बढ़ती जाएगी। एक ऐसा व्यक्तित्व जिसने पूरी दुनिया को अपनी शक्ति का एहसास दिलाया, सत्य और अहिंसा के द्वारा अनेक असाधारण कार्यों को कर दिखाया, पूरी दुनिया में चर्चित हुआ एवं भारत में राष्ट्रपिता के नाम से अभिहित हुआ, उसकी हार्दिक इच्छा थी कि ‘हिंदी’ भारत की राष्ट्रभाषा बने।

गांधी का हिंदी प्रेम देखना है तो आपको 20 अप्रैल 1935 को इंदौर में हिंदी साहित्य सम्मेलन के 24वें अधिवेशन पर दृष्टि डालनी होगी, जिसमें सभापति के पद से गांधी ने यह जाहिर कर दिया था कि राष्ट्रभाषा बने या न बने हिंदी को मैं छोड़ नहीं सकता। यद्यपि इसी वक्तव्य में उन्होंने अपने हिंदी ज्ञान की ओर भी संकेत करते हुए कहा था कि- “मेरा हिंदी भाषा का ज्ञान नहीं के बराबर है। आपकी प्रथमा की परीक्षा में मैं उत्तीर्ण नहीं हो सकता हूँ। लेकिन हिंदी भाषा का मेरा प्रेम किसी से कम नहीं ठहर सकता।” उनके इस कथन से स्पष्ट होता है कि उन्हें हिंदी की उतनी अच्छी जानकारी नहीं थी, जितनी कि गुजराती की या अंग्रेजी की। फिर भी वे हिंदी से इतना प्रेम क्यों करते हैं, इसके पीछे के कारणों पर हमें दृष्टि डालनी होंगी।
संपूर्ण भारत की यात्रा करने पर गांधी ने जो एहसास किया कि अहिंदी भाषाभाषी भी हिंदी को समझते हैं। इसलिए हिंदी ही वह भाषा है जो राष्ट्रभाषा बनने के लिए उपयुक्त है। साथ ही हिंदी भाषा केवल विचारों के आदान प्रदान के माध्यम तक ही सीमित नही है, बल्कि गांधी उसे राष्ट्रीयता तथा स्वराज के साथ जोड़ते है। गांधी राष्ट्रभाषा की आवश्यकता को महसूस करते हैं क्योंकि वे इस बात को रेखांकित करते हैं कि राष्ट्रभाषा के अभाव में कोई भी राष्ट्र गूंगा हो जाता है। अपना राष्ट्र बोल सके, इसलिए राष्ट्रभाषा की आवश्यकता को गांधी ने महसूस किया।
काशी हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी में 6 फरवरी 1916 को एक कार्यक्रम में गांधी ने अपनी बात हिंदी में रखकर सभी को स्तब्ध कर दिया था। इतना ही नहीं, उन्होंने अंग्रेजी में कार्यक्रम के संचालन की आलोचना भी की। फिर क्या? हिंदी में उनके भाषण का दौर प्रारंभ हो गया। भागलपुर में1917 में आयोजित छात्र सम्मेलन में गांधी ने अपना वक्तव्य हिंदी में दिया जिससे राष्ट्रभाषा हिंदी की नीव भारतीय युवाओं के मस्तिष्क तक पहुँची। इंदौर में आयोजित हिंदी साहित्य सम्मेलन के आठवें अधिवेशन 1918 में सभापति के पद से ही गांधी जी ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का स्वप्न देखना शुरू कर दिया था। हिंदी के प्रचार-प्रसार की शुरुआत का कार्य इसी सम्मेलन के बाद से उन्होंने शुरू कर दिया था। इंदौर में सम्मेलन के 24वें अधिवेशन में दूसरी बार सभापति बने महात्मा गांधी, सभापति के पद से ही अपने वक्तव्य में आगे के कार्य की रूपरेखा पेश की।
 
गांधी ने दक्षिण भारत में हिंदी के प्रचार का निश्चय किया। इस दिशा में ‘हिंदी प्रचार सभा’ के लिए कई हिंदी विद्वानों को वहाँ भेजा गया, जिनमें पुरुषोत्तम दास टंडन, वेंकटेश नारायण तिवारी, शिव प्रसाद गुप्ता जैसे हिंदी सेवी थे। ‘हिंदी प्रचार कार्यालय’ के अपने दौरे पर गांधी ने सच्ची राष्ट्रीयता के विकास के लिए सभी से हिंदी को आत्मसात करने की अपील की। उनका मानना था कि भाषा वही श्रेष्ठ है जिसे जनसमूह सहज ही समझ सके। इसलिए हिंदी की सहजता एवं व्यापकता को देखते हुए, उन्होंने इसे विकसित करने का निश्चय किया।
गांधी के प्रयास से अनेक संस्थाएं अस्तित्व में आईं, जो हिंदी के प्रचार-प्रसार में अपना हम योग दे रही हैं। इस क्रम में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा-चेन्नई, हिंदी साहित्य सम्मेलन-प्रयागराज तथा राष्ट्रभाषा प्रचार समिति-वर्धा इत्यादि संस्थाओं का नाम लिया जा सकता है, जो अभी भी हिंदी को वैश्विक धरातल पर स्थापित करने के लिए प्रयासरत हैं। स्वतंत्रता के बाद जब संविधान में ‘संघ की राजभाषा भाषा हिंदी तथा लिपि देवनागरी’ को स्वीकार किया गया, तब सभी ने महात्मा गांधी का स्मरण किया।
 
हिंदी के विकास के लिए प्रारंभ की गई इस यात्रा का परिणाम है कि आज वह ‘राष्ट्र संघ’ की ओर अग्रसर है। भारत सरकार के प्रयास से ‘राष्ट्र संघ’ ने भी हिंदी की शक्ति को स्वीकारते हुए प्रत्येक शुक्रवार को हिंदी में समाचार प्रकाशित करना आरंभ कर दिया है। जरूरत है अपने देश के प्रत्येक भाषाभाषियों द्वारा इसे आत्मसात करने की; क्योंकि “हिंदी भारत और भारतीय संस्कृति का चेहरा ही नहीं, विश्व में हिंदुस्तान की पहचान भी है।” विश्व पटल पर हिंदी की पहचान को कायम रखने के लिए हमें आगे बढ़ना होगा। जिन्हें हिंदी से तनिक भी प्रेम है, उन्हें गांधी के इस कथन पर दृष्टि डालनी होगी कि- “जितने साल हम अंग्रेजी सीखने में बर्बाद करते हैं, उतने महीने भी अगर हम हिंदुस्तानी सीखने की तकलीफ न उठाएँ, तो सचमुच कहना होगा कि जनसाधारण के प्रति अपने प्रेम की जो डींगे हम हाँका करते हैं, वे निरीह डींगे ही हैं।”
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#योगेश कुमार मिश्र, सीनियर रिसर्च फेलो
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग
ई-मेल : yogeshmishra154@gmail.com


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