उपन्यासकार निराला : 'अलका' उपन्यास के संदर्भ में
उपन्यासकार निराला : 'अलका' उपन्यास के संदर्भ में
निराला ऐसे उपन्यासकार के रूप में सामने आते हैं, जिनके पात्र जब गांव छोड़कर शहर जाते हैं, तो उनका उद्देश्य व्यवसाय नहीं, शिक्षार्जन होता है। इतना ही नहीं, वे अपने पात्रों की अधूरी शिक्षा को फिर से आगे बढ़ाते हैं। वे शहर से शिक्षित होकर गाँव लौटते हैं, तो लोगों को साक्षर बनाने का प्रयास करते हैं। उनके द्वारा साक्षरता अभियान के संदर्भ में दिए गए विचार आज भी प्रासंगिक हैं, ‘अलका’ का विजय कहता है कि- “जो भीख भगवान के नाम पर भिक्षुकों को दी जाती है, प्रतिदिन यदि उतना अन्न निकालकर एक हंडी में रख लिया जाए और महीने के अंत में गांव-भर का अन्न एकत्र कर बेंचा जाए, तो उसी अर्थ से एक शिक्षक रखकर वे अपने बालकों को प्रारंभिक शिक्षा दे सकते हैं।” लेखक का चिंतन यहां पर सराहनीय है। यह बीसवीं सदी के चौथे दशक में लिखा गया उपन्यास है, जिसके चार वर्ष बाद, सन 1937 में गांधी जी ने अपने पत्र- ‘द हरिजन’ में लेखों की एक श्रृंखला प्रकाशित की और एक शिक्षा योजना का प्रस्ताव किया। निराला के द्वारा सुझाया गया तर्क आज भी प्रासंगिक है।
सरकार की ‘सर्व शिक्षा अभियान’ की अवधारणा के बावजूद भी, ऐसे तबके मिलेंगे, जहां तक सरकारी शिक्षा की पहुंच नहीं है। उन जगहों पर ऐसे चिंतन की जरूरत है। निराला का मानना है कि “जब तक रियाया अपने अर्थ को पूरी मात्रा में नहीं समझती, तब तक दूसरे समझदार का जुआ उसके कंधे पर रखा रहेगा।” इसलिए वे किसानों की शिक्षा पर जोर देते हैं। उपन्यासकार का चिंतन और आगे तक साक्षरता की दिशा में उल्लेखनीय है।विजय ने स्वयं तो गांव से बाहर जो भीख मुफ्त जाती थी, उसके बदले उन कृषक-बालकों को शिक्षा देने का उपक्रम बनाया है। साथ ही आस-“पास के पाँच-छह गाँवो में जहां मदरसे दूर थे और किसान बालकों को पढ़ने में असुविधा थी, उसी तरीके पर साधारण शिक्षा देने वाला, उसी गांव का मामूली पढ़ा-लिखा, कलम की नौकरी करने में अयोग्य, गृहों में हताश रहने वाला एक-एक युवक नियुक्त कर दिया।”
कथाकार एक ओर जहां गांव की निरक्षरता को दूर करने के लिए प्रयासरत है, वहीं दूसरी ओर बेरोजगार शिक्षित युवकों के बारे में भी सोच रहा है। लोगों की शिक्षा के लिए प्रयासरत, इसी विजय के खिलाफ, जब ये किसान, गांव के जमीदार तथा साहूकारों के बहकावे में आ करके गलत बयान देते हैं, तो विजय की आंखों में आंसू आ जाता है। अपनी सजा को सुनकर नहीं, बल्कि इन किसानों की दशा को सोचकर। वह सोचता है कि अज्ञानता के कारण इनका आत्मविश्वास कितना कमजोर है। जेल के भय से ये किसान जमीदार के कहने पर कुछ भी करने को तैयार हैं। वे नही जानते कि जमीदार लोग नहीं चाहते हैं कि किसान शिक्षित हो। इसीलिए किसानों का यह संगठित शिक्षा क्रम देखकर वे विजय के खिलाफ किसानों से गवाही दिलवा देते हैं।
निराला और उनके पात्रों की जिजीविषा अदम्य है। वे हार मानने वाले नहीं। जेल से छूटकर विजय, प्रभाकर नाम से शहर में कुलियों को संगठित कर, उनकी शिक्षा के लिए कार्य करता है। वह अलका से अपेक्षा करता है कि- “आप जैसी सहृदया विदुषियों को भारत की अशिक्षा से ठुकराई हुई समाज के उपेक्षित स्त्रियां करुणा-कंठ से प्रतिक्षण अशब्द आमंत्रण दे रही हैं।” प्रभाकर कुलियों की स्त्रियों के लिए एक पाठशाला खोलना चाहता है, जिसमें पढ़ाने के लिए वह अलका से अनुरोध करता है- “आपकी मुझे जरूरत है। मैं यहां की कुलियों की स्त्रियों के लिए एक नैश पाठशाला उनकी खोलियों के पास खोलना चाहता हूं। आप केवल दो घंटे शाम 7-9 बजे तक दीजिए।” पाठशाला में कुलियों की स्त्रियों को शिक्षा का प्रावधान हो गया। अलका रोज पढ़ाने जाती है।
इस प्रकार से निराला शिक्षा की महत्ता को समझ रहे थे। गांव की अशिक्षा को दूर करने के लिए अपने विचारों को रखते हैं। उनकी इन्हीं बारीकियों को देखकर गोपाल राय ने लिखा कि- “सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का महत्व इस दृष्टि से है कि उनके उपन्यासों में सामाजिक परिवर्तन की कामना सर्वाधिक प्रखर रूप में प्रकट हुई है।---- ग्रामीण यथार्थ केचित्रण में निराला यत्र-तत्र प्रेमचंद से भी आगे बढ़े दिखाई पड़ते हैं।”
(योगेश मिश्र,शोधार्थी, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय)
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